नवेद शिकोह
यूपी की सियासत की समझ रखने वाले कुछ सियासी पंडित कहते रहे हैं कि आज़म ख़ान हर दौर में समाजवादी पार्टी के लिए नुकसानदायक रहे हैं। मुस्लिम समाज में भी किसी दौर में भी रामपुर के अलावा उनका जनाधार नहीं रहा। वो मुस्लिम समाजवादियों/मंत्रियों/विधायकों/पदाधिकारियों और मुस्लिम कार्यकर्ताओं का भी अपमान करते थे। मौलाना बुखारी और मौलाना कल्बे जव्वाद तक से उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा। उलेमाओं यहां तक कि इमामे काबा तक के बारे में उन्होंने अपशब्द कहे थे। मुलायम से लेकर अखिलेश तक पर आज़म दबाव बनाते रहे। कुछ ख़ास विधानसभा-लोकसभा सीटों का टिकट आज़म खान की रज़ामंदी से ही दिया जाता था। कहा जाता है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद अखिलेश समाजवादी पार्टी के किसी भी वरिष्ठ की नहीं सुनते पर आज़म खान का दबाव उनपर हावी रहा।
यदि ये बातें सही हैं तो हेट स्पीच में सजायाफ्ता होने के बाद आज़म की विधायकी रद्द होने, रामपुर की दुबारा हार (पहले लोकसभा उप चुनाव और फिर विधानसभा उपचुनाव में शिकस्त) के बाद उनके सियासी सफर पर विराम लगने से अखिलेश यादव की मुसीबत टल जाना चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुसीबत टली नहीं बढ़ गई है। यूपी में समाजवादी पार्टी का सबसे बड़ा बीस फीसद वोट बैंक मुस्लिम समाज का है। और इतने बड़े वोटबैंक के हिसाब से इतना बड़ा मुस्लिम चेहरा समाजवादी पार्टी के पास नहीं है। भले ही सूबे के मुसलमान आज़म को मुस्लिम नुमाइंदा या कौम का हमदर्द नहीं मानते हों लेकिन उनकी बेचारगी को देखकर उनसे हमदर्दी पैदा हो गई है। जब भी कभी लगा कि सपा का शीर्ष नेतृत्व आज़म को नजरंदाज कर रहा है तो माना गया कि मुस्लिम क़ौम को नजरंदाज किया जा रहा है। इसलिए अभी भी सपा को आज़म खान के नाज़-नखरे उठाना पड़ेंगे।
रामपुर में उपचुनाव में आज़म खान के सपा उम्मीदवार आसिम रज़ा की हार के बाद अखिलेश यादव और सपा गठबंधन के साथी जयंत चौधरी को आज़म ख़ान को पुरसा (दुख प्रकट करने-सांत्वना देने) रामपुर जाना पड़ेगा। सूत्र बताते हैं कि ये लोग जल्द ही आज़म खान से मिलने रामपुर जाएं। जयंत ने खतौली जीतने के बाद आज़म खान की हार पर दुख प्रकट करके राजनीतिक दक्षता दिखाई। अखिलेश चुनावी प्रचार के लिए रामपुर गए भी थे। लेकिन इसे नाकाफी माना जा रहा है।
मुस्लिम समाज में यादव परिवार के ख़िलाफ़ सपा के लिए घातक चर्चा शुरू हो गई है। कहा जा रहा है कि खतौली और ख़ासकर मैनपुरी की एतिहासिक जीत के बाद सपाइयों में खुशी की लहर के बीच आज़म को उनकी नाकामियों और बेचारागी के साथ तन्हा छोड़ दिया गया है। मुस्लिम समाज में जो बड़ा सवाल उठ रहा है वो तर्कसंगत भी है। सत्ता पर पक्षपात, बेइमानी और चुनाव आयोग पर गहरा आरोप लगाने वाले अखिलेश यादव अपने इन आरोपों में ही फंस गए हैं। शासन के इशारे पर प्रशासन ने सपाई मतदाताओं को वोट डालने से रोकने की भरपूर कोशिश की। लाठी चलाई, मुक़दमे दर्ज किए, बेराकेटिंग लगा दी। वोटरों को घायल कर दिया। जेल में ठूंस दिया।
समाजवादियों के ऐसे कथित आरोपों के बीच रालोद के जांबाजों ने प्रशासन की लाख सख्तियो़ के आगे डट कर भाजपा विरोधी वोटरों को वोट डालने से रोकने की कोशिश को नाकाम कर दिया। इसी तरह अखिलेश यादव, शिवपाल यादव और पूरा यादव परिवार मैनपुरी में डंका रहा। ज़मीनी संघर्ष करता रहा। जिसकी वजह से समाजवादी कार्यकर्ताओं में जोश-जज्बा और हिम्मत पैदा हुई। हजारों कार्यकर्ताओं का हुजूम भी मैनपुरी में डटा रहा। कथित पुलिस प्रशासन की सख्तियों से मुकाबला करके वोट डलवाए गए और डिंपल यादव के पक्ष में इतने वोट पड़े कि ऐतिहासिक जीत दर्ज हुई।
अखिलेश-शिवपाल सहित समस्त नेताओं का आरोप था कि रामपुर में आजम खान को टार्गेट बनाकर वहां प्रशासन ज्यादा ज्यादती कर रहा है। ताकि रामपुर में सपा को हराकर आज़म की बची-खुची सियासत को ध्वस्त करने का संदेश देकर भाजपा इनका राजनीतिक लाभ उठा सकें।आरोपों के मुताबिक तो सपा के शीर्ष नेताओं को मैनपुरी की तरह रामपुर में भी डटना चाहिए था। यदि सपा का ऐसा ही हुजूम रामपुर में भी प्रशासन की कथित ज्यादतियों के आगे सीना ताने खड़ा होता तो रामपुर में भी सपा के पक्ष के वोटर वोट इतनी कम संख्या में मतदान नहीं करते। या काउंटिंग में कथित बेइमानी नहीं होती। मुस्लिम समाज में ऐसी बातों की सुगबुगाहट के बीच अखिलेश यादव का रामपुर में सपा की शिकस्त की क़ब्र पर सूरे फातिहा पढने जाना चाहिए है। ऐसी चर्चाओं के बीच सपा और गठबंधन के शीर्ष नेताओं को आज़म खान से मिलने रामपुर जाना पड़ेगा।
नाकामियों के अंधेरों में मैनपुरी और खतौली की कामयाबी समाजवादियो के लिए आशा की किरण है। जोश और जज्बे से भरे समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं और ख़ासकर यादव परिवार को एहसास होने लगा है कि एकता में बल है, मेहनत रंग लाती है, मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए। मैनपुरी के उपचुनाव में भाजपा के उम्मीदवार को शर्मनाक हार दिलवाने वाली डिंपल यादव सिर्फ जीती नहीं हैं। अपने ससुर मुलायम सिंह यादव जैसे जिगगज नेता की बड़ी से बड़ी हर जीत का भी उन्होंने रिकार्ड तोड़कर इतिहास रच दिया है। बातें ये भी होने लगी हैं कि अखिलेश यादव जो चुनाव जीतना चाहते हैं वो जीत लेते हैं। परिवार में एकता भी पैदा कर देते हैं और ज़मीनी संघर्ष से भाजपा जैसी शक्ति को शिकस्त देने की ताक़त दिखा ही देते हैं। पर जब नहीं चाहते हैं तो चुनावी सभा तक नहीं करते।
फिलहाल मौजूदा सफलता के उत्साह और खुशी में रामपुर की हार और आज़म खान की बेचारगी मैनपुरी-खतौली की जीत की थाल में किरकिरी ही नहींं बल्कि ज़हर पैदा कर सकती है। क्योंकि यूपी विधानसभा चुनाव में सपा को बीस फीसद मुस्लिम समाज का बल्क वोट मिला था। आज़म की बेचारगी को देखकर आगामी लोकसभा चुनाव में यदि मुस्लिम समाज कांग्रेस या बसपा की दावत की सुगंध की तरफ आकर्षित हो गया तो सपा के लिए पांच-सात सीटें भी जीतना मुश्किल होगा।