एक साधु थे। वह नदी के किनारे, वियाबान स्थान में कुटिया बनाकर रहते थे। उनके चारों ओर हरे भरे वृक्ष थे। उन पर शाम-सवेरे पक्षी आकर आनंद से चहचहाते थे। कुछ पक्षियों ने तो साधु के मुख- मण्डल पर तेज था कि दूर-पास के बहुत-से स्त्री पुरुष खिंचकर वहां चले आते थे। एक दिन एक सेठ आये। धन उनके पास अपार था, बहुत बड़ा व्यापार था, विशाल परिवार था, किन्तु चैन उनसे कोसों दूर था। चेहरा उनका मुरझाया हुआ था। विवशता की रेखांए स्पष्ट दिखाई दे रही थी। साधु के चरण स्पर्श करके वह सामने बैठ गये।
आर्द्र नेत्रों से उन्होंने अपनी ओर देखा। बोले सेठ तुम तुम्हारे पास सबकुछ भले ही हो, पर वह नहीं जो नींद के लिए आवश्यक है। वह क्या है, महाराज? सेठ ने विनय-पूर्वक पूछा। साधू ने गंभीर होकर कहा, सेठ तुम चारों ओर चिन्ताओं से घिरे हो। धन-सम्पत्ति की चिन्ता, व्यापार की चिन्ता, बाल-बच्चों की चिन्ता।
याद रखों, चिन्ता और चैन के बीच बड़ी शत्रुता है। सेठ ने कातर स्वर में कह, स्वामीजी मैं क्या करूं? मेरा जीवन दूभर हो गया है। साधु बोले, सेठ तुम प्रकृति से हट गये हो। देखते ही प्रकृति कितनी सम्पन्न है। चारों ओर उसका साम्राज्य फैला है, लेकिन वह अपनी सम्पदा में लिप्त नहीं है। उसके सिर पर कोई बोझ नहीं है। वह हर घड़ी हंसती-विहंसती रहती है। फिर उसकी उदारता तो बेजोड़ है।
अपनी दौलत को भर-भर हाथों बांटती रहती है। सेठ उसी से तुम शिक्षा लो तभी तुम्हारा संकट दूर होगा। साधु की बात सेठ के गले उतर गई। उसके रोग का निदान हो गया। अब उपचार कठिन नहीं था।