सुमन सिंह
कुछ दिनों पूर्व मैंने जब किशनगढ़ की ‘बणी-ठणी’ के समाधि स्थल – वृन्दावन पर कला मर्मज्ञ प्रोफेसर जय कृष्ण अग्रवाल जी का अविस्मरणीय अनुभव पढ़ा तो रोमांचित हो उठा क्योंकि ये स्थान तो हमारी हवेली से सिर्फ दो फर्लांग की दूरी पर है और बचपन में हमने इस स्थान पर मोहल्ले के बच्चों के साथ खूब क्रिकेट खेली है।
कहते हैं कि जहां चाह वहां राह, हाल ही में हुए करोना-लॉकडाउन में वृन्दावन प्रवास के दौरान मैंने एक बार से फिर से किशनगढ़ के महाराजा और कवि सावंतसिंह ‘नागरीदास’ एवं उनकी प्रेरणा स्त्रोत प्रेयसी और अनन्य सुन्दरी बणी-ठणी जो स्वयं एक गायिका और कवयित्री भी थी के समाधि स्थल पर गया, देखकर जब मैं वापिस आ रहा था तो मन में उतना उत्साह नहीं था जितना वहां जाने के पूर्व था।
खैर, जब बात वृन्दावन की कला, साहित्य, संगीत और संस्कृति की हो तो ऐसी चर्चा के लिए डॉ राजेश शर्मा जो कि वृन्दावन शोध संस्थान में शोध अधिकारी हैं, से ज्यादा अनुभवी और तथ्यात्मक शोधकर्ता से ज्यादा उपयुक्त व्यक्ति मुझे दूर-दूर तक नज़र नहीं आता। मैंने उनके साथ बणी-ठणी और नागरीदास पर एक लम्बी और तथ्य-परक विस्तृत चर्चा की, जिसमें बणी-ठणी और कवि नागरीदास के ऐतिहासिक तथ्यों और उनके वृन्दावन प्रवास के दौरान उनके सृजनात्मक जीवन जिसमें उनकी भक्ति पद रचना, पुष्प संयोजन, सांझी कला एवं राधाकुंड महत्व, प्रमुख हैं। हमारी इस चर्चा की बैठकें तीन दिनों तक चलीं, जिसमें एक दिन की पूरी चर्चा जो कि ‘सांझी विलुप्त होती एक कला परम्परा – वृन्दावन के विशेष संदर्भ में, हमारे साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर डॉ अमिता खरे, अतिथि व्याख्याता, राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला महाविद्यालय, ग्वालियर के साथ भी हुई, इन सब चर्चाओं का सारांश निम्नांकित है-
इतिहास और किंवदंतियों की बात करें तो आर्यों में क्षत्रिय को गर्म खून और लड़ाई करने वाला मन जाता रहा है यानि एक ऐसा वर्ग जिसकी प्राथमिकताऐं कला, साहित्य और संगीत नहीं हैं। लेकिन महाराजा राजसिंह किशनगढ़ के कनिष्ठ पुत्र सावंतसिंह (जन्म सन् १६९९, संवत् १७५६) ने न केवल इस किंवदंती को गलत साबित किया बल्कि अपनी वीरता और पराक्रम से बूंदी के हाडा राजा जैत सिंह पर विजय हासिल करके अपना नाम इतिहास में दर्ज किया।
राजस्थान के इतिहास के शाही दौर में राजसी ठाटबाट और मोहब्बत के कई अफसाने यहाँ की रेत के धोरों पर इबारत बन कर उभरे, लेकिन बणी-ठणी की प्रेम गाथा इन सबसे अलग ही है, जिसमें किशनगढ़ रियासत के तत्कालीन राजा सावंत सिंह ने अपनी प्रेयसी और निजदासी का चित्र अपने हाथों से अपने एक चित्रकार की सहायता से अपने सपनों की सुन्दरी के रूप में निज रानियों के जैसी पौशाक व आभूषण पहनाकर केनवास के जैसी वस्तु पर उतारा और इसको अपना ही एक नाम दिया बणी-ठणी।
राजस्थानी भाषा के शब्द बणी-ठणी का मतलब होता है सजी-संवरी और सजी-धजी। राजा के द्वारा बनाये चित्र की उस समय पूरे राज्य और राज घरानों में चर्चा और प्रसंशा हुई और उसके बाद से ही राजा की इस निज दासी का नाम बणी-ठणी पड़ गया और सब सार्वजनिक रूप से उसे बणी-ठणी के नाम से ही पुकारने लगे। बणी-ठणी की सुंदरता का ये आलम था कि राज्य के चित्रकार भी अपनी चित्रकला के हर विषय में राजा की प्रिय दासी बणी-ठणी को ही हर जगह आदर्श मोडल के रूप में बनाने लगे, देखते ही देखते स्थिति ऐसी हो गई कि राज्य में हर जगह बस बणी-ठणी के चित्रों के ढेर लग गए और अपनी विशिष्ट सुंदरता के कारण पूरे राज्य में प्रसिद्ध भी हुए।
किशनगढ़ की बणी-ठणी चित्रशैली को प्रकाश में लाने का श्रेय अलीगढ़ विश्वविद्यालय और राजकीय कॉलेज लाहौर में अंग्रेजी के प्रोफेसर एरिक डिकिन्सन को जाता है। सन् 1943 में जब प्रोफेसर एरिक डिकिन्सन मेयो कॉलेज, अजमेर के शैक्षणिक भ्रमण के लिए आये, तब उन्होंने किशनगढ़ राजघराने के कलाकृति के संग्रह में बणी-ठणी और अन्य पेंटिंग को देखा और फिर इन पेंटिंगों में पुरुषाकृति में लंबा छरहरा बदन, उन्नत ललाट, लंबी नाक, पतले होंठ, खंजनाकृत कानों तक खिंचे हुए विशाल नयन तो नारी की आकृति में गौर वर्ण, बांके काजल से युक्त विशाल नयन, उन्नत ललाट, बड़ी तीखी सुंदर नासिका, सुराहीदार गर्दन को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए।
प्रोफेसर एरिक डिकिन्सन अपने भ्रमण के बाद उन्होंने किशनगढ़ की चित्र शैली पर एक किताब भी लिखी जिसे पूरे कला जगत ने सर-आंखों पर रखा और इस तरह की किशनगढ़ की चित्रशैली को बणी-ठणी के नाम से पूरे विश्व में जाना-जाने लगा। बणी-ठणी की ये ऐतिहासिक मूल पेंटिंग वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में सुरक्षित रखी हुई है। सन् 1973 में भारत सरकार के डाक विभाग ने किशनगढ़ की बणी-ठणी शैली में राधा के चित्र को अपनी एक डाक टिकट में भी जारी किया।
राजा सावंत सिंह की सौंदर्य दृष्टि और कविता, कला एवं संगीत में पारंगत होने की वजह से बणी-ठणी जो कि स्वयं एक कवियत्री और कलाकर थी, कला और सौंदर्य की कद्र करने वाले राजा का अनुग्रह व अनुराग स्वीकार कर राजा की निज दासी बन गयी। राजा सावंतसिंह और उनकी ये संगीतकार गायिक दासी दोनों ही कृष्ण भक्त थे, राजा की अपनी और बेपनाह आसक्ति देख दासी ने भी राजा को कृष्ण व खुद को मीरा मानते हुए राजा के आगे अपने आपको पूर्ण मनोयोग से सम्पूर्ण रूप में समर्पित कर दिया। राजा और बणी-ठणी की अनूठी आसक्ति को जानने वाली प्रजा ने भी उनके भीतर कृष्ण-मीरा की छवि देखना शुरू कर दिया और दोनों को कई अलंकरणों से नवाजा जैसे राजा को नागरीदास, चितवन, चितेरे, अनुरागी, मतवाले आदि तो दासी बनी-ठनी को कलावंती, नागर रमणी, उत्सव प्रिया, रसिक बिहारी, किशनगढ़ की राधा आदि के संबोधन दिए। रसिक बिहारी छाप की यहां तक बात है तो ये बणी-ठणी का कविता में लिखने वाला उपनाम है जिसे वह अपनी कविता में शुरू से ही लिखती रही थी।
कालान्तर में एक बार जब राजा अपने परिवार और बणी-ठणी के साथ दिल्ली प्रवास पर थे उस वक्त दुर्भाग्यवश इनके पिता की मृत्यु हुई, ऐसे में इनके ही छोटे भाई ने इनके राज्य पर अधिकार कर लिया। इस अन्याय के प्रतिकार हेतु इन्होने अपने छोटे भाई को युद्ध में परास्त कर अपने राज्य पर फिर से अधिकार प्राप्त कर लिया। लेकिन इस घटना से इनका मन इतना दुःखी हुआ कि इन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र व भाई में बाँटने के बाद वैराग्य ले लिया और फिर बणी-ठणी के साथ वृन्दावन आ गए (वृन्दावन आगमन सन् 1762, संवत् 1819)।
श्री वृन्दावन धाम के लिए नागरीदास ने लिखा है कि वह जीव धन्य है जो श्री वृन्दावन धाम से जुड़ा है, नित्य रसिक संतो का आदर सम्मान करता हुआ उनसे प्रेम करता है। मन, वचन, कर्म से साधन भजन करता हुआ प्रभु के श्रीचरणों में लिपटा रहता है, उसके भाग्य का वर्णन भला कैसे किया जा सकता है
धन – धन वृन्दावन जो आवैं ।
सुन्दर करत प्रीति सन्तन सौं, नित प्रति न्यौंत जिमावैं ॥
मन- वच- क्रम सौं सेवत साधन, चरननि लगि लपटावैं ।
नागरीदास भाग तिनको कोउ, कहाँ लगि वरन सुनावैं ॥
नागरीदास के विरक्त होकर वृन्दावन आने से पहले ही उनकी भक्ति की पद्य रचनाओ में लिखा उपनाम ‘नागरीदास’ जगह-जगह प्रसिद्ध हो चुका था, राज्य और वैभव से विरक्ति के संदर्भ में नागरीदास का यह दोहा उनकी मनस्थिति को जग-जाहिर करता प्रतीत होता है –
जहाँ कलह वहां सुख नहीं कलह सुखन को शूल ।
सबै कलह एक राज में राज कलह को मूल ॥
राजा के वृन्दावन में आकर निवास करने के बाद धीरे-धीरे जब लोगों को मालूम पड़ना शुरू हुआ कि किशनगढ़ महाराजा सांवत सिंह जी आये हैं तो उनसे कोई मिलने नही आया, किन्तु जब सबको ये मालूम पड़ा की ये ही नागरीदास हैं तो लोग उनसे दौड़-दौड़ कर मिलने आने लगे –
सुनी व्यवहारिक नाम को ठाडे दूर उदास ।
दौड़ मिले भरी भुजन सुनी नाम नागरीदास ॥
वृन्दावन में रहकर राजा और बणी-ठणी का पूरा समय षड-गोस्वामियों के देवस्थानों में जाकर पुष्प-सेवा, उत्सव, समाज गायन, साँझी कला आयोजन में खर्चा एवं राधाकुण्ड में जाकर दानपुण्य करने में व्यतीत होता था जिसके लिए किशनगढ़ राज्य से उनके पास नियमित राशि आती थी, लेकिन एक बार ऐसी राशि आने में बिलम्ब हुआ जिसके कारण वे समय से अपने दैनिक कार्यों का निस्तारण नहीं कर पाये, तब अपनी बढ़ती उम्र और व्यथित हृदय से इन्होंने अपने पुत्र को एक दोहारूपी संदेश लिखकर भेजा –
दांत गिरे और खुर घिसे पीठ बोझ नही लेत ।
ऎसे बूढ़े बैल कौ कौन बांध खल देत ॥
उनके ऐसे संदेश को पढ़कर, उनके पुत्र की आँखे भर आईं और फिर उसके बाद उनके जीवन भर कभी किशनगढ़ राज्य से नियमित राशि आने में देर नहीं हुई।
श्राद्ध पक्ष (पितृ पक्ष) के दौरान ब्रज में साँझी के आयोजनों की प्राचीन परंपरा बहुत पुरानी है और नागरीदास जो कि स्वयं में एक कलाकार थे वृन्दावन में भट्टजी की हवेली की साँझी कला की परंपरा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पहली बार इसे आमजन के मध्य एक बहुत बड़े और विस्तृत रूप में हवेली मंदिर में आयोजित किया, जिसे बाद में ‘साँझा’ के नाम से कला रसिकों में जाना गया। ‘साँझा’ की रचना के लिए ग्यारह फ़ीट चौड़ी अष्ट-पहलू वेदी का निर्माण किया गया जिसमें पूरे ब्रज के साँझी के कलाकारों ने मिलकर साँझी के बड़े-बड़े स्टेंसिलों और विविध प्रकार के रंगों के संयोजन के साथ संरचना की, जिसे पूरे ब्रज-मंडल के कला रसिकों ने आकर लगातार पाँच दिनों तक देखा।
चाचा हित वृन्दावनदास (रचनाकाल संवत् 1800 से 1844 तक) जो कि पुष्कर क्षेत्र के रहने वाले और राधाबल्लभीय गोस्वामी हित रूप जी के शिष्य थे, ने उस वक्त ब्रजमण्डल में पहली बार भट्टजी जी हवेली में आयोजित इस ब्रज के ‘साँझा’ लोकोत्सव के सन्दर्भ में कहा है –
मन वांछित फलपाइये जो कीजै इंहि सेव ।
सुनौ कुँवरि वृषभानु की यह साँझी सांचों देव ।।
चाचा हित वृन्दावनदास के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि जिस प्रकार सूरदास के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है वैसे ही इनके भी एक लाख पद और छंद बनाने की बात प्रसिद्ध है।
‘साँझा’ के लोकोत्सव के दौरान ही हवेली में श्री वल्लभ रसिक जी महाराज के द्वारा रचित ‘साँझी की माँझ’ का गायन बणी-ठणी और नागरीदास के द्वारा अन्य समाजियों और रसिकजनों ने किया। वृन्दावन शोध संस्थान में संरक्षित दस्तावेज आज भी उस ‘साँझी की माँझ’ की गौरवगाथा को कहते प्रतीत होते हैं। भट्टजी के घराने के आचार्य श्री वल्लभ रसिक जी के द्वारा रचित ‘साँझी की माँझ’ अपने उत्कृष्ट साहित्य सृजन के चलते यह अपने युग की प्रसिद्ध रचनाओं में शामिल की गयी, जिसे उस समय लिखी निम्नांकित रचना से आसानी से समझा जा सकता है –
चंद जू कौ छन्द छप्पै नाभा औ बेताल जू की,
केसव कौ कवित्त दोहा विहारी के सुगांस कौ
वल्लभ रसिक की मांझ गिरधर की कुंडलियाँ,
वाजिद अरिल्ल सो है अति सै प्रकास कौ
रस रास रेखता अरू घात बीरबल जू की,
तुलसी की चैपाई औ श्लोक वेद व्यास कौ
भनत गुपाल ये जहान बीच जाहर है,
सूर कौ पद औ धुरपद हरिदास कौ
वृन्दावन धामानुरागावली (पांडुलिपि संवत् 1900) में उल्लेख मिलता है कि नागरीदास ने जहां साँझा के कई कार्यक्रम करवाये वहीं अपनी साधना स्थली नागरीदास घेरा में अपने द्वारा लिखे साँझी कवित्तों के आधार पर साँझी लीला को बाल-गोपालों के द्वारा अभिनय लीला भी करवाईं, इस संदर्भ में उनके द्वारा फूल-बीनन लीला प्रसंग की ब्रजभाषा में कई पदावलियाँ सुलभ हैं –
साँझी फूल लैन सुख दैन, मन मैननि कौं ।
शयामा जू साथ यूथ जुबतिन के धाये हैं ॥
चलत अधिक छवि छाजत छबीलीन कै ।
रंगीलिन के रंग रंग पट फहराए हैं ॥
नागरीदास का भक्तों की वाणी और श्रीराधाकुण्ड की महिमा और उसके महत्व पर बहुत ज्यादा आस्था थी, शायद यही कारण था कि उन्होंने आचार्य श्रीगोवर्द्धन भट्टजी द्वारा लिखित ‘श्रीमद्राधाकुंड स्तव:’ का अध्ययन किया और अपने ग्रंथ ‘तीर्थानंद’ में लिखा कि –
आये चलि तिहिं ठां रसिक झुण्ड
जहाँ राधाकुण्ड रु कृष्ण कुण्ड ।
नागरीदास का वृन्दावनवास (देहावसान) संवत् 1821 में हुआ, अपने जीवनकाल (रचनाकाल संवत् १७८० से १८१९) में उन्होंने छोटी बड़ी कुल मिलाकर 75 रचनाएँ की हैं, उनकी सभी रचनाएं पद, कवित्त, सवैए, दोहे, मांझ, अरिल्ल आदि छंदों में प्रेम, भक्ति और वैराग्य पर सरस एवं टकसाली हैं। ये सभी रचनाएं ठाकुरजी के हिंडोला, साँझी, दीवाली, फाग आदि त्यौहारों और समस्त ऋतुओं में श्रीकृष्ण की लीलाओं से रची-पगी हैं। इनकी 73 रचनाओं का संग्रह ‘नागरसमुच्चय’ के नाम से ज्ञानसागर यंत्रालय से प्रकाशित भी हुआ है। इन रचनाओं को हम गोपीप्रेमप्रकाश, बिहारचंद्रिका, जुगलरस माधुरी, पदमुक्तावली, वैराग्यसागर, सिंगारसागर और पदसागर के संग्रहों में पढ़ सकते हैं।
इस ब्लॉग के प्रारम्भ में, मैंने लिखा है कि बणी-ठणी और नागरीदास की समाधि देखकर जब मैं वापिस आ रहा था तब मन में उतना उत्साह नहीं था जितना वहां जाने के पूर्व था, ऐसा लिखने का मुख्य कारण समाधि स्थल की दुर्दशा है, कुंज गली के मध्य दान गली – मान गली के सामने नागरी कुंज आज बेबस सी झाड़-झक्कड़ में धूल फांक रही है, इस स्थान के चारों तरफ लोगों ने रिहाइशी निर्माण करवा लिया है, बाहरी दरवाजे पर लगे बोर्ड पर लिखे समाधि स्थल के आखर भी आज पूरी तरह से धुंधले होकर मिटते जा रहे हैं।
आज बात, सिर्फ बणी-ठणी और नागरीदास की समाधि की ही नहीं है, बल्कि हमारे आसपास न जाने कितने बिखरे पड़े इस प्रकार के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों की है जिनको अगर समय रहते नहीं संजोया गया तो एक दिन इन स्थानों को पहचान पाना बहुत ही मुश्किल काम होगा। जहां तक ऐसे स्थानों के रख-रखाव पर उपेक्षा की बात है तो आज ये किसी यक्ष प्रश्न से कम नहीं है जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। बड़ा ही दुःखद है मगर, अगर कोई भी इसका जिम्मेदार है भी तो वह भी अपने कर्तव्य से मुंह मोड़े बिखरती कड़ियों में अपने नाम की एक और कड़ी जोड़ता नज़र आता है।
शैलेन्द्र भट्ट:
श्रीवृन्दावन धाम, 30 मई 2020
मेरे आसपास हो रही बहुत सी बातें मेरे मन में बहुत सारे विचारों को जन्म देती हैं, मेरे विचारों से लोग सहमत होंगे मैं इस भ्रम में कभी नहीं रहता।