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    असरानी ने बॉलीवुड में खेली कॉमेडी की लंबी पारी, लेकिन सफलता अंग्रेजों के ज़माने के जेलर से मिली

    ShagunBy ShagunOctober 16, 2021 मनोरंजन No Comments6 Mins Read
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    वीर विनोद छाबड़ा
    कॉमेडी की दुनिया में संख्या के हिसाब से सबसे लोकप्रिय एक्टर अगर कोई है तो उसका नाम असरानी है, गोवर्धनदास ठाकुरदास जेठानंद असरानी. देखा जाए तो क़्वालिटी के हिसाब से भी ठीक-ठाक हैं. अब हर कोई मोतीलाल तो हो नहीं सकता जो हर फील्ड में सहज रहे. असरानी कॉमेडी की फील्ड में सबसे ज़्यादा वक़्त गुज़ारने वाले एक्टर भी हैं. करीब पचास साल हो चुके हैं उन्हें कॉमेडी करते हुए. हालाँकि इस दरम्यान उन्होंने कुछ सीरियस रोल भी किये, लेकिन पहचान कॉमेडियन की ही रही.
    गुज़री एक जनवरी को उन्होंने ज़िंदगी के 81 साल पूरे कर लिए हैं. जैसा कि तक़रीबन हर एक्टर के साथ होता है, सिंधी परिवार से संबंधित असरानी का दिल पढाई-लिखाई में बिलकुल नहीं लगा. किसी तरह ठोक-पीट कर बारवां पास किया और जयपुर से भाग कर बम्बई आ गए, हीरो बनने का अरमान लिए. काफी इधर-उधर भटके. शम्मी कपूर की ‘उजाला’ (1959) में बतौर एक्स्ट्रा खड़े दिखे. सूचना मिलने पर घरवाले उन्हें पकड़ कर जयपुर वापस ले आये. लेकिन उनका फ़िल्मों के प्रति गहरा रुझान देख कर पूना फिल्म इंस्टीयूट में एक्टिंग के कोर्स में भर्ती करा दिया गया.
    असरानी ने 1966 में कोर्स पूरा कर लिया. इस बीच उन्हें पता चल चुका था कि बंबई सपनों की दुनिया है. स्ट्रगल बहुत है, सफलता तो अपवाद स्वरूप है. लेकिन इतना इत्मीनान था कि एक्टिंग का डिप्लोमा है तो कहीं पैर टिकाने भर की जगह ज़रूर मिल जायेगी. संयोग से पेट भरने के लिए उन्हें इंस्टीट्यूट में ही इंस्ट्रक्टर की नौकरी मिल गयी और खाली वक़्त में पूना से बंबई के बीच शंटिंग की इजाज़त भी. किशोर साहू की ‘हरे कांच की चूड़ियां’ (1967) में उन्हें हीरो बिस्वजीत के मित्र का रोल मिला, लेकिन बात बनी नही. कोई नोटिस करता भी भला कैसे? फिल्म ज़बरदस्त फ्लॉप रही.
    एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है. वो अक्सर ऋषिकेश मुकर्जी से मिलते रहते थे. ऋषि दा कहते, अभी तो कोई रोल नहीं है. लेकिन मिलते रहा करो. और इसका फल भी मिला. ऋषि दा पूना आये, अपनी अगली फिल्म की नायिका की तलाश में. असरानी ने समझा मेरे लिए आये हैं. वो तैयार होकर हाज़िर हो गए. ऋषि दा असरानी के फिल्मों के प्रति समर्पण के भाव से सम्मोहित हो गए. ‘सत्यकाम’ (1969) में एक छोटा सा रोल दे दिया. जिसमें वो एक कोरस में दिखे – ज़िंदगी है क्या बोलो ज़िंदगी है क्या…इस गाने की चंद पंक्तियाँ उनके हिस्से में भी आयीं. उसके बाद वो ऋषि दा की तक़रीबन हर फिल्म में दिखे. ‘गुड्डी’ (1971) में असरानी को अपनी ही ज़िंदगी को दोहराने का मौका मिला, फ़िल्मों की सनक में घर से भागा हुआ लड़का कुंदन. फिल्म भी चली और असरानी भी. लेकिन इसमें असरानी कॉमेडियन की छाया मात्र थे.
    कालांतर में असरानी ने अपने इस किरदार का एक्सटेंशन बनाया, चला मुरारी हीरो बनने.  लेकिन फिल्म चली नहीं, अलबत्ता असरानी चलते रहे. लगे हाथ ये भी बता दें, असरानी ने आगे चल कर सलाम मेमसाब, हम नहीं सुधरेंगे भी बनायीं यानी डायरेक्शन का कीड़ा उनके दिमाग से नहीं निकला.  नतीजा असरानी ने जितना कमाया, उससे ज़्यादा लुटा दिया.  मगर उनकी एक्टिंग की गाड़ी जैसे तैसे चलती रही.
    हां, तो लौट कर असरानी के संघर्ष पर आते हैं. कॉमेडियन के रूप में उनकी पहचान बनी, गुलज़ार की ‘मेरे अपने’ से. फिर असरानी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. और फिर हालात भी असरानी के मुताबिक थे. सत्तर के सालों में जॉनी वॉकर मैदान छोड़ चुके थे और कॉमेडी किंग महमूद उतार पर थे. यानी असरानी के लिए मैदान खाली.
    आज तक की तारीख़ में असरानी की फिल्मों की गिनती 350 से ज़्यादा है. उन्हें बेस्ट सुप्पोरिंग रोल और बेस्ट कॉमेडियन के रूप में फिल्मफेयर ने 14 बार नॉमिनेट किया. लेकिन अवार्ड दो बार ही मिला. बेस्ट सप्पोर्टिंग रोल के लिए ‘आज की ताज़ा ख़बर’ के लिए और बेस्ट कॉमेडियन के लिए ‘बालिका बधु’ में. ऋषि दा की ‘बावर्ची’ में उनकी मित्रता राजेश खन्ना से हो गयी. दोनों ने साथ साथ 25 फ़िल्में कीं जिसमें से 21 हिट रही.
    नमक हराम, हमशक्ल, अजनबी, आपकी कसम, प्रेमनगर, रोटी, महबूबा, छैला बाबू, चलता पुर्ज़ा, अनुरोध, अगर तुम न होते, आखिर क्यों, मास्टरजी आदि. ये बात ग़ौरतलब है कि असरानी हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाने से पहले गुजराती सिनेमा में अपनी पैठ बना चुके थे.
    उन्होंने 1974 में गुजराती में ‘अहमदाबाद गाय रिक्शेवालो’ डायरेक्ट की. लेकिन संतोष उन्हें हिंदी सिनेमा से मिला. उनकी चर्चित फ़िल्में रहीं – आज की ताज़ा ख़बर, रोटी, प्रेमनगर, चुपके चुपके, छोटी सी बात, रफूचक्कर, बालिका वधु, फ़कीरा, अनुरोध, छैला बाबू, चरस, फांसी, दिल्लगी, हीरालाल-पन्नालाल, पति-पत्नी और वो, हमारे-तुम्हारे आदि.  कभी-कभी छोटी लेंथ का किरदार भी आला मुकाम दिला देता है. ‘शोले’ के जेलर के किरदार ने असरानी को शायद सबसे ज़्यादा शोहरत दिलाई – हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं. उनका ये तकिया-कलाम आज भी कोई भूला नहीं है. असरानी ने कॉमेडी का अलावा भी किरदार किये. ‘खून-पसीना’ में वो सीरियस थे तो ‘कोशिश’ और ‘चैताली’ में नेगेटिव अंदाज़ में. ‘तेरी मेहरबानियां’ और ‘अब क्या होगा’ में वो विलेन थे. लेकिन दर्शक इन किरदारों में उन्हें हज़म नहीं कर पाए.
    नब्बे के सालों में असरानी की ढलान शुरू हो गयी. उन्हें रफ़्तार से फ़िल्में मिलनी बंद हों गयीं.  सबसे बड़ी वज़ह ये थी कि अब हीरो लोग खुद ही कॉमेडी करने लगे थे. असरानी जैसे प्योर कॉमेडी आर्टिस्ट का स्कोप कम हो गया. लेकिन सूखा पूरी तरह नहीं पड़ा. असरानी की सेकंड इनिंग शुरू हो गयी. और ये ज़्यादा सम्मानजनक रही. उनके किरदार सिर्फ कॉमेडी की सीमा में बंधे नहीं रहे. हेरा-फेरी, छुप-छुप के, हलचल, दीवाने हुए पागल, मालामाल वीकली, भागम भाग, दे दनादन, बोल-बच्चन, गरम मसाला, बिल्लू आदि इस सदी की फ़िल्में हैं.
    असरानी को ‘मस्तीज़ादे’ करने के बाद बहुत पछतावा हुआ. अपने कैरीयर में इससे पहले इतनी गन्दी फिल्म नहीं की थी उन्होंने. उन्हें संतोष है कि उन्होंने किसी फिल्म में औरतों का लिबास नहीं पहना, डबल मीनिंग संवाद नहीं बोले.
    असरानी के साथ एक विवाद भी जुड़ा है. सुना है साठ के सालों में जब वो इंस्टीट्यूट में पढ़ाते थे तो नामी-गिरामी राजकपूर के बेटे ऋषिकपूर को इंस्टीट्यूट में दाखिला देने पर ऐतराज कर दिया, क्योंकि ऋषि मैट्रिक पास नहीं थे. कई बरस बाद राजकपूर ने उन्हें एक फिल्म ऑफर की, लेकिन उन्होंने बहुत ज़्यादा पैसे मांग लिए. बात वहीं ठप्प हो गयी.
    अब असरानी पर्दे पर दिखाई नहीं देते हैं. इक्यासी प्लस के करीब पहुंच रहे हैं. निर्माताओं को डर भी लगता होगा, शूटिंग के बीच बीमार पड़ गए, फिल्म लटक जायेगी. आखिर फिल्म बनाना बिज़नेस ही तो है. कुछ भी हो असरानी आउट ऑफ़ सर्कुलेशन भले हों लेकिन उन्हें देखने वालों की पीढ़ी उन्हें याद बहुत करती है।

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