सुशासन की अटल अवधारणा
डॉ दिलीप अग्निहोत्री
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सदैव राजनीति के उच्च आदर्शों पर अमल किया। वह राष्ट्रहित की विचारधारा के प्रति समर्पित रहे। विपक्ष में रहे तो इसी आधार पर सरकार का विरोध किया। इसमें कोई व्यक्तिगत दुराव नहीं था। इसलिए उन्हें अजातशत्रु कहा गया। वह किसी पद के कारण महत्वपूर्ण नहीं थे। सात दशक के सार्वजनिक जीवन में वह मात्र आठ वर्ष ही सत्ता में रहे, इसमें 13 दिन, 13 महीने और फिर पांच वर्ष प्रधानमंत्री रहे। शेष राजनीतिक जीवन विपक्ष में ही बीता। लेकिन विपक्ष और सत्ता दोनों क्षेत्रों में उन्होंने उच्च कोटि की मर्यादा का पालन किया। उनका राजनीति में पदार्पण विपरीत परिस्थितियों में हुआ था। सम्पूर्ण देश में कांग्रेस का वर्चस्व था। संसद से लेकर विभिन्न विधानसभाओं में उसका भारी संख्याबल होता था। इसके अलावा आजादी के आंदोलन से निकले वरिष्ठ नेता कांग्रेस में थे। ऐसे में जनसंघ जैसी नई पार्टी और युवा अटल के लिए रास्ता आसान नहीं था। राजनीति जीवन का यह उनका पहला दायित्व था।
जनसंघ के विचार अभियान में मुख्य धारा में पहचान बनाना चुनौती पूर्ण था। अटल जी मे विलक्षण भाषण क्षमता थी। इसे उन्होंने राष्ट्रवादी जनसंघ के विचार अभियान में मुख्य धारा में पहचान बनाना चुनौती पूर्ण था। उनमें विलक्षण भाषण क्षमता थी। इसे उन्होंने राष्ट्रवादी विचारधारा से मजबूत बनाया। 1957 में वह लोकसभा पहुंचे थे।
सत्ता के संख्याबल के सामने जनसंघ कहीं टिकने की स्थिति में नहीं था। अटल जी ने यह चुनौती स्वीकार की। कमजोर संख्या बल के बाबजूद अटल जी ने जनसंघ को वैचारिक रूप से महत्वपूर्ण बना दिया। यहीं से राजनीति का अटल युग प्रारंभ हुआ। विपक्ष की राजनीति को नई धार मिली। अटल बिहारी विपक्ष में रहे। तब उनके भाषण सत्ता को परेशान करने वाले थे। लेकिन किसी के प्रति निजी कुंठा नहीं रहती थी।
पाकिस्तान के आक्रमण के समय उन्होंने विरोध को अलग रख दिया। सरकार को अपना पूरा समर्थन दिया। राजनीत की जगह उन्होंने राष्ट्र को महत्व दिया। आज विपक्ष सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाता है। अटल जी सत्ता में आये तो लोककल्याण के उच्च मापदंड स्थापित कर दिए। विदेश मंत्री बने तो भारत का विश्व में गौरव बढा दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी गुंजाने वाले पहले नेता बन गए। यह अटल जी का शासन था, जिसमें लगातार इतने वर्षों तक विकास दर सर्वाधिक बनी रही। अटल जी तीन बार देश के प्रधानमंत्री रहे।
अटल जी सबसे पहले 1996 में तेरह दिन के लिए प्रधानमंत्री बने और बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उनके शासनकाल में ही भारत में टेलीकॉम क्रांति की शुरूआत हुई। टेलीकॉम से संबंधित कोर्ट के मामलों को तेजी से निपटाया गया और ट्राई की सिफारिशें लागू की गईं। स्पैक्ट्रम का आवंटन इतनी तेजी से हुआ कि मोबाइल के क्षेत्र में क्रांति की शुरूआत हुई।
पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कारगिल क्षेत्र में घुसपैठ कर भारत के बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान के कब्ज़े वाली जगहों पर हमला किया। एक बार फिर पाकिस्तान को भागना पड़ा था। अटल जी अब हमारे बीच नहीं है। लेकिन अटल युग आज भी प्रासंगिक है। इससे पक्ष और विपक्ष दोनों को प्रेरणा लेनी चाहिए।
पूर्ण पूर्ण क्षमता,निष्ठा, ईमानदारी और मर्यादा के साथ दायित्व निर्वाह ही कर्म कौशल होता है। योग:कर्म कौशलम।इस अर्थ में अटल बिहारी वाजपेयी कर्म योगी थे। राजनीति में ऐसे कम लोग ही हुए हैं जो कुर्सी नहीं,कर्म से महान बने। अटल जी ऐसे ही लोगों में से एक थे। सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने के बाद वह लगभग दशक भर से सार्वजनिक जीवन से दूर थे। किसी विषय पर उनका कोई बयान नहीं आता था। इसके बावजूद उनका मुख्यधारा में बने रहना अद्भुत था। बड़े-बड़े नेता उनके घर जाकर सम्मान की औपचारिकता का निर्वाह करते थे।राजनीति और राजनीति शास्त्र दोनों अलग क्षेत्र है।
राजनीति में सक्रियता या आचरण का बोध होता है, राजनीति शास्त्र में ज्ञान की जिज्ञासा होती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इन दोनों क्षेत्रों में समान रूप से आदर्श का पालन किया। राजनीति में आने से पहले वह राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी थे। कानपुर के डीएवी कॉलेज में नई पीढ़ी भी उनकी यादों का अनुभव करती है। अटल जी उन नेताओं में शुमार थे, जिनके कारण किसी पद की गरिमा बढ़ती है। डीएवी में जाने पर अनुभूति होती है कि यहीं कभी अटल जी विद्यार्थी के रूप में उपस्थित रहते थे। कालेज के प्रथम तल पर कमरा नम्बर इक्कीस में वह बेंच पर बैठते थे। डीएवी कानपुर में अटल जी के गुरु रहे प्रो.मदन मोहन पांडेय के निर्देशन में मुझे पीएचडी करने का सौभाग्य मिला। अक्सर बातचीत में वह अटल जी की चर्चा करते थे। इससे यह पता चला कि अटल जी बहुत होनहार विद्यार्थी थे, उनमें ज्ञान के प्रति जिज्ञासा थी।
प्रो.पांडेय के निर्देशन में पीएचडी करने के बाद शिक्षक के रूप में मेरी नियुक्ति इसी विभाग में हुई। यहां प्रवेश करते ही अटल जी की फोटो दिखाई देती है। नीचे पूर्व प्रधानमंत्री नहीं,बल्कि पूर्व छात्र लिखा है। यहां बैठने पर ऊपर एक सूची पट्ट दिखाई देता है। उन्नीस सौ सैंतालीस पर नजर टिक जाती है। इसमें विद्यार्थी का नाम लिखा है-अटल बिहारी वाजपेयी..डिवीजन प्रथम, पोजिशन द्वितीय। यह वह समय था जब कानपुर विश्वविद्यालय अस्तित्व में नहीं था।
डीएवी आगरा विश्वविद्यालय से संबंद्ध था। इतने बड़े विश्वविद्यालय में अटल जी ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की थी। राजनीतिक जीवन में उनका दामन बेदाग रहा। सत्ता मिली तब भी सहज रहे। सत्ता उद्देश्य नहीं बल्कि दायित्व था। विपक्ष में रहते हुए राष्ट्र के लिए उनका वैसा ही समर्पण रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने उन्हें भारत का पक्ष रखने के लिए जेनेवा भेजा था। अटल जी ने अपने इस दायित्व को बखूबी निभाया। वह अपने लिए नहीं देश और समाज के लिए जिये। उनका जीवन प्रेरणादायक है।