- लोकसभा चुनाव में पहली बार बबेरू क्षेत्र के दो प्रतिष्ठित लोग पहुंचे संसद भवन
- बबेरू को नूतन विकास के साथ-साथ अपने पौराणिक महत्व की दरकार
राहुल कुमार गुप्ता, सीनियर कॉपी एडिटर
उत्तर प्रदेश के अतिपिछड़े क्षेत्र बुंदेलखंड के दक्षिणतम छोर पर बसा एक नगर बबेरू जो कि बांदा जिला में पड़ने वाली एक विधानसभा है। यहां न कोई प्राकृतिक, न ही कोई कृत्रिम सुंदर बनावटें हैं, न कोई उद्योग, न कोई फैक्ट्री, न ही किसी अन्य क्षेत्र में विकास की कोई ऐसी किरण जिससे इसकी पहचान भी जग जाहिर हो जाये। इसकी ऐतिहासिकता और पौराणिकता के रहस्य भी पूरी तरह से पिछड़े और उलझे हुए हैं। बबेरू की ऐतिहासिकता और पौराणिकता को लेकर लोग तरह-तरह के तर्क देते आ रहे हैं लेकिन हकीकत किसी उलझी हुई गुत्थी से कम नहीं है।
हाँ। बबेरू में मां मढ़ीदाई का प्राचीन प्रसिद्ध मंदिर है। जिसकी मूर्ति बबेरू में बने एक टीले से प्राप्त हुई थी फिर उसी टीले में माता का भव्य मंदिर बनवाया गया। यह बबेरू क्षेत्र के वासियों का सबसे बड़ा आस्था का केन्द्र भी है, जहाँ लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।
यहाँ की रामलीला भी काफी प्राचीन और प्रसिद्ध रही है वक्त के साथ साथ इसकी प्रसिद्धता में काफी कमी आयी है।
वैज्ञानिक स्तर पर यह स्थल बाढ़ और भूकंप से जरूर सुरक्षित है लेकिन सूखा प्रभावित क्षेत्र में कभी-कभार इसकी गिनती जरूर हुई है।
वैसे बबेरू के इतिहास, भुगोल और विज्ञान की अचानक से जरूरत क्यों आन पड़ी? हां! एक बड़ी वजह है या इसे इत्तेफाक कहिए हाल ही में हुए 18वीं लोकसभा चुनाव में बबेरू विधानसभा क्षेत्र से दो बड़ी शख्सियत पहली बार संसद में पहुंचे हैं। जिनमें से पूर्वमंत्री व अतिपिछड़ों के बड़े नेता बाबूसिंह कुशवाहा जौनपुर लोकसभा का प्रतिनिधित्व करते नज़र आयेंगे तो पूर्व मंत्री शिवशंकर सिंह पटेल की धर्म पत्नी पूर्व जिला पंचायत अध्यक्षा श्रीमती कृष्णा सिंह पटेल बांदा-चित्रकूट लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करेंगी।
बाँदा जिले में अतर्रा नगर पालिका, व बाँदा सदर को शिक्षा क्षेत्र में विकसित करने के बड़े प्रयास बसपा सरकार में पूर्व कद्दवार मंत्री रहे बाबूसिंह कुशवाहा की देन है। जिससे यहां के लोगों को अब अपने बच्चों को बेहतरीन शिक्षा के लिये बाहर भेजने का रिस्क नहीं लेना पड़ता। बाँदा में कृषि विश्वविद्यालय और मेडिकल कॉलेज की स्थापना व अतर्रा में ट्रिपल आईटी की स्थापना में भी इनका ही सर्वाधिक श्रेय रहा है। अब कुशवाहा जी की नयी पारी में बबेरू के लोगों की भी उम्मीद बंधी हुई हैं कि शायद इस बार कुछ बबेरू के लिए भी अच्छा हो। क्योंकि वो बबेरू क्षेत्र के पखरौली गाँव से ही आते हैं। इस नयी पारी पर वो जौनपुर लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, फिर भी यहां के लोगों की उम्मीदें अपने सांसद श्रीमती कृष्णा पटेल के अलावा इनसे भी हैं।
बबेरू का नाम कौन कितनी ऊंचाइयों तक ले जा सकता है ये भविष्य के गर्त में छिपा है। वक्त द्वारा दिये इस स्वर्णिम मौके पर शायद अब बबेरू का नाम देश-विदेश में कोने-कोने तक पहुंच सके और बबेरू अपने नाम के मामले में स्थायित्व को प्राप्त करे।
हाँ! कभी-कभार यहाँ के कुछ विरले शख्सियतों के कारण जरूर इसका नाम दूर दराज के लोगों तक पहुंचा है और पहुंचता है लेकिन यह भी बबेरू की महत्ता के लिए एक अस्थाई प्रक्रिया है।
अगर 20वीं और 21वीं सदी की बात करें तो बबेरू विधानसभा में कुछ ऐसी शख्सियतें जरूर रहीं जिनसे देश दुनिया में इस क्षेत्र का नाम आया। साहित्य की दुनिया के बेताज बादशाह केदारनाथ अग्रवाल जी की वजह से बबेरू क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला कमासिन व जिला बांदा का नाम इतिहास में दर्ज हो चुका है। पं. जे पी शर्मा इंटर कॉलेज के दो पूर्व प्रधानाचार्य स्व. श्री रमाशंकर मिश्र जी व स्व. लक्ष्मी प्रसाद गुप्ता जी भी साहित्य क्षेत्र के धुरंधर रहे इनकी बहुत सी कृतियाँ पढ़ने योग्य हैं, कुछ विश्वविद्यालयों के छात्रों ने इनके साहित्य पर शोध कर पीएचडी की उपाधियाँ भी ली हैं। लेकिन वैसा विस्तार नहीं हो सका जैसा कि केदारनाथ अग्रवाल जी के साहित्य का हुआ। चिकित्सा के क्षेत्र को मानव सेवा मानने वाले डॉक्टर इंद्र नारायण द्विवेदी जी भी अपने क्षेत्र में निःशुल्क सेवा देकर दूर दराज तक क्षेत्र का नाम रोशन करने का एक स्तंभ बने हुए हैं। उम्रदराज होते हुए भी वो लोगों को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। आज ग्लोबलाइजेशन और अर्थ के दौर में भी वो चिकित्सकीय सेवा को ही अपना परम धर्म मानते हैं। इनको मानने वाले बबेरू के आस पास ही नहीं दूर दराज के लोग भी सम्मान का भाव रखते हैं।
अब बात करते हैं पौराणिक बातों की ! जहां बबेरू नाम का जिक्र जल्द कहीं नहीं मिलता। इतिहास हो या कथा कहानी इनमें नाम उन्हीं का बनता है जो कुछ कर गुजरते हैं। तटस्थ रहने वालों का जल्द कहीं कोई नामों निशान नहीं मिलता।
कुछ ग्रंथों के तथ्यों से संभावित है कि बबेरू नाम के राजा श्री राम के मौसेरे भाई थे।
बचपन में बबेरू नाम को लेकर बहुत दिनों तक भ्रमित रहे क्योंकि यहां सभी अग्रजों से यही सुन रखे थे कि अर्जुन पुत्र बब्रुवाहन के नाम पर इसका नाम बबेरू पड़ा तो कुछ बोलते थे कि इसका नाम बबेरू किसी मुगल राजा बाबरूद्दीन पर पड़ा।
अभी पिछले साल पूर्वोत्तर भारत के भ्रमण में जाने का मौका मिला तो पता चला कि मणिपुर में ही अर्जुन पुत्र बब्रुवाहन का राज था। तब से इसी विषय पर दिमाग केंद्रित रहा की वास्तव में बबेरू नाम की ऐतिहासिकता या पौराणिकता क्या है?
ऋग्वेद के दस मंडलों में कई मंडल ऐसे हैं जो ऋषियों के नाम पर हैं और ये सभी ऋषि त्रेता युग के आसपास के ही हैं।
ऋग्वेद में दस मंडल हैं और इनके ऋषियों का क्रम और मंडलों का क्रम देखने में पश्चिम से पूर्व की ओर का एक व्यवस्थित क्रम दिखता है। प्रथम मंडल में ऋषि मधुच्छंदा जो कि विश्वामित्र के पुत्र के रूप में जाने जाते हैं इनका स्थान राजस्थान व हरियाणा के आसपास का है। द्वितीय मंडल ऋषि गृत्समद का है जिनके बारे में कहा जाता है कि रूई का आविष्कार गणेश जी के इन्हीं परम भक्त द्वारा किया गया था। इनका स्थान भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से रहा है। तृतीय मंडल विश्वामित्र जी जो कि कन्नौज( कान्यकुब्ज) से संबंधित रहे। चतुर्थ मंडल वामदेव जी द्वारा रचित है। जहां कृषि की सभी प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी दी गई है। इससे ऐसा प्रतीत होता है केन, यमुना और बागे नदी द्वारा सिंचित यह क्षेत्र कृषि में अग्रणी रहा होगा। वामदेव जी बाँदा से संबंधित हैं। फिर पांचवें मंडल को अत्रि मुनि ने रचा जो अतर्रा से लेकर चित्रकूट तक के क्षेत्र से संबंधित रहे। छठे मंडल की रचना भारद्वाज ऋषि के द्वारा रचित मानी जाती है जो कि प्रयागराज से संबंधित रहे। हम भारत के या यूपी के मैप में देखें तो एक व्यवस्थित क्रम देखने को मिलता है। सप्तम मंडल की रचना ऋषि वशिष्ठ द्वारा की गई इनका स्थान अयोध्या के पास बाराबंकी से लेकर सुल्तानपुर व बस्ती व आसपास से संबंधित रहा।
ये क्रम और काल इसलिये दिखाया गया कि इसी काल के दौरान ही बबेरू का नाम भी पड़ा। जो स्थान पहले से प्रसिद्ध थे वो उसी नाम पर या थोड़े से बदलाव पर हमारे समक्ष आज भी हैं। बांदा का नाम वामदेव ऋषि के कारण, अतर्रा का नाम अत्रि ऋषि के कारण व बबेरू का नाम राम जी के मौसेरे भाई राजा बबेरू के नाम पर पड़ा।
भारत के प्राचीन सप्तऋषि पंचांग के अनुसार पौराणिक वंशावलियों का क्रम लगभग 7000 ई.पू. प्रारम्भ होता है। इसमें श्री राम सूर्य वंश की पीढ़ी में आते हैं तो श्री कृष्ण भगवान जी चंद्र वंश की यदुवंशीय पीढ़ी में आते हैं। ययाति के पुत्र यदु और यदु के पुत्र सहस्रजीत ने हैहय वंश की शुरुआत की जिनके वंशज वृष्णि से अन्य तीन वंश बने। वृष्णि वंश, चेदि वंश और कुकुरा यदु वंश।
वृष्णि वंश की अंतिम पीढ़ियों में श्री वासुदेव कृष्ण भगवान जी और उनके वंशजों का जन्म होता है। चेदि वंश अपनी छठवीं पीढ़ी से शुरू होता है। इनके पूर्वजों की दूसरी पीढ़ी में राजा बबेरू का जिक्र आता है। यदु और वृष्णि के वंशज राजा विदर्भ के तीन पुत्र कुशा, कृत और रोमपाद होते हैं।
राजा रोमपाद अंग देश के राजा थे और श्री राम के मौसा थे। उनकी पत्नी का नाम वर्षिणी था। जो मां कौशल्या की बहन थीं।
दक्षिणी रामायणों के अनुसार भगवान राम की एक बहन भी थीं। उनका नाम शांता था, जो चारों भाइयों से बड़ी थीं। लोककथा के अनुसार शांता राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थीं। शांता जब पैदा हुई तो अयोध्या में 12 वर्षों तक का अकाल पड़ा। ऋषियों ने चिंतित राजा दशरथ को सलाह दी कि उनकी पुत्री शांता ही अकाल का कारण है। राजा दशरथ ने अकाल दूर करने हेतु अपनी पुत्री शांता को अपनी साली वर्षिणी जो कि अंगदेश के राजा रोमपद कि पत्नी थीं उन्हें दान कर दिया। शांता का पालन-पोषण राजा रोमपद और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया।
राजा दशरथ शांता को अयोध्या बुलाने से डरते थे इसलिए कि कहीं फिर से अकाल न पड़ जाए। शांता के अंग देश में पहुंचने के बाद वहां भी कई वर्षों तक वर्षा न होने से रोमपद चिंतित हुए। उन्हें ऋषियों ने श्रृंगी ऋषि की महत्ता बताई और कहा यदि वो यहां आ जाएं तो बारिश हो जाए।
महर्षि विभाण्डक के पुत्र श्रृंगी ऋषि जब तमाम कोशिशों के बाद अंग देश पहुंचे तो वहां का सूखा मिट गया। फिर शांता के इस दुर्भाग्य को देखते हुए उसे सौभाग्य में बदलने के लिए श्रृंगी ऋषि के साथ उनका विवाह करा दिया जाता है। फिर श्रृंगी ऋषि के वरदान से ही राजा रोमपाद को बबेरू के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। और श्रृंगी ऋषि के यज्ञ द्वारा ही राजा दशरथ को भी चार संतानें प्राप्त होती हैं। राजा बबेरू का जिक्र कहीं व्यवस्थित और विस्तृत रूप से नहीं है लेकिन वंशावलियों के अध्ययन से यही प्रतीत होता है की संभवतः बबेरू राजा रोमपाद के पुत्र थे। अर्थात जिस तरह से बांदा और अतर्रा का नाम त्रेता युग के ऋषियों की कर्मस्थली से पड़ा, उसी तरह त्रेता युग में ही चंद्रवंशी यदुवंशी राजा बबेरू के कारण बबेरू का नाम पड़ा होगा। तटस्थ लोगों का इतिहास में कहानी में और कथाओं में ज्यादा जिक्र नहीं होता यदि कुछ बड़ी घटनाएं या दुर्घटनाएं उस दौर में न हुई हों तो! और बहुत से ग्रंथ आक्रांताओं द्वारा बर्बाद भी किए जा चुके हैं जिनमें बहुत सी जानकारियां खत्म हो चुकी हैं।
गरुण पुराण, विष्णु धर्मोत्तर और मार्कंडेय पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथों में प्राचीन जनपद क्षितिज को 9 प्रभागों में विभाजित करते हैं। अंग, वंग, कलिंग, पुंड्रा, विदर्भ और विंध्य के आस पास के क्षेत्र को पूर्व दक्षिण प्रभाग में रखा गया है। इसी प्रभाग में एक भाग के रूप में बबेरू और आसपास का क्षेत्र भी सम्मिलित रहा होगा।
राजा बबेरू की चौथी पीढ़ी राजा सुबाहु के समकालीन प्रसिद्ध नल और दमयंती भी हुए। बबेरू की छठी पीढ़ी से चेदी वंश की शुरुआत हुई । जिसका क्षेत्र महाजनपद में बुंदेलखंड ही बताया गया है। अतः एक क्रम से सारी चीजें देखने और समझने के बाद बबेरू के नाम और उसकी पौराणिकता को लेकर सर्वाधिक नजदीक यही तथ्य आते हैं। इस विषय को लेकर और अधिक शोध की जरूरत हो सकती है जिससे बबेरू का अस्तित्व सही रूप से बबेरू वासियों के समक्ष आ सके और बबेरू को एक नई पहचान मिल सके।
इस लोकसभा चुनाव में बबेरू क्षेत्र की दो बड़ी हस्ती देश की सर्वोच्च पंचायत में पहुंच चुकी हैं। संभावना और उम्मीद है कि सर्वाधिक पिछड़े बबेरू क्षेत्र में नूतन विकास के साथ-साथ बबेरू के अस्तित्व व उसकी पौराणिकता को भी पहचान मिलेगी।