ओ वीगनवादियों…
वीगन होना भी एक किस्म का एलिटिज्म है. “मैं वीगन हूं” ऐसा कहना “मैं नास्तिक हूं” जैसा ही है. वीगन होने, बनने और बनाने का एक चलन–सा चल पड़ा है इन दिनों. इसे भी किसी मनुष्य या उसकी संवेदनशीलता ने नहीं, बाजार ने ही तय किया है. वीगनवादी अव्वल दर्जे के बाजारवादी हैं.
खान–पान को लेकर मेरा स्पष्ट मानना है कि यह व्यक्ति की निजी चॉइस का मामला है. आप वेजिटेरियन हैं या नॉन–वेजिटेरियन इसका चुनाव आप करते हैं. लेकिन आप अपने वेज या नॉन–वेजिटेरियन होने की पसंद को किसी पर थोप नहीं सकते. आप मांस नहीं खाते न खाएं. अगर दूसरा खाता है तो उसे खाने दें न. उसे इतनी हेय–दृष्टि से क्यों देखना. जिसे जो अच्छा लगता है, खाएगा. बेपरवाह होकर खाएगा.
दुनिया–समाज किसी के कहने या किसी की पसंद–नापसंद के हिसाब से नहीं सिर्फ अपने हिसाब से चलता है. उसे जैसा वो है, चलने दें. बीच में लकड़ी न करें.
मुझे किसी के वीगन या नॉन–वेजिटेरियन होने पर कोई आपत्ति नहीं. फिर वीगनवादियों को ही क्यों होनी चाहिए? खामखां का बुद्धिजीवी होना भी बड़ा तकलीफ देता है. ये वीगनवाद का चरस इन्हीं खामखां बुद्धिजीवियों का बोया हुआ है.
बताता चलूं, मैं मांसाहारी हूं.
- अंशुमाली रस्तोगी