वीर विनोद छाबड़ा
पुरानी यादों, प्रसंगों और ख़्वाबों को विजुलाइज़ करना हमारी पुरानी फ़ितरत रही है. अभी कल की ही बात है हमने लाल साईकिल सवार एक बालिका देखी. हम सीधी सीधी बात करते हैं. इसलिए हम मुद्दे पर आते हैं. यानी हम क़रीब साठ बरस पीछे चले गए. लाल साईकिल पर वो रोज़ाना स्कूल जाती थी. पीछे-पीछे पैदल हम भी. हमारे पास तब साईकिल नहीं थी. पिता की ऊँची साईकिल चलाना हमारे बस की बात नहीं थी. एक दिन हमने विजुलाइज़ किया कि उसके स्कूल गेट के पास हमने साईकिल की छोटी सी दुकान खोल ली है. उसकी साईकिल के पहियों में हवा भरने से लेकर छोटी-मोटी मरम्मत फ्री में हम खुद करते हैं. कुछ समय बाद वो बड़ी हो गयी. स्कूल छोड़ कर वो कॉलेज जाने लगी. उसकी साईकिल भी अब बड़ी हो गयी, मगर रंग वही लाल है. हमने भी तय कर लिया, तेरा पीछा न छोडूंगा सोणिये. हम भी अपनी दुकान कॉलेज तक खिसका लाये.
फिर दो साल बाद वो यूनिवर्सिटी पहुँच गयी. पीछे पीछे हम भी, साईकिल की दुकान लिए. वो भी समझने लगी कि हम उसके पीछे पीछे साईकिल की दुकान लिए क्यों चलते हैं और उसका हर काम प्रिऑरिटी पर फ्री में क्यों करते हैं. वो हमें देख कर मुस्कुराती भी थी और दुनिया से नज़रें बचा कर बाई बाई भी करती.
एक दिन जब हम उसकी साईकिल के पहिये में हवा भर रहे थे तो उसने धीरे से कहा, देखो अब मैं कल से नहीं आऊंगी. मेरी शादी तय हो गयी है. तुम तो वैसे के वैसे ही रहे, साईकिल में हवा भरना, पंक्चर लगाना, ब्रेक ठीक करना वगैरह वगैरह. हमने देखा ये कहते हुए वो बहुत उदास थी, उसकी आँखों में आंसू भी छलक आये. लेकिन हम हिम्मत हारने वालों में से नहीं थे. हमने उसे आश्वासन दिया, हम अपने बाऊजी के साथ तुम्हारे बाऊजी से तुम्हारा हाथ मांगने आएंगे. हमारा साईकिल का खोखा है तो क्या हुआ? हम दिल वाले हैं और ख़ानदानी लोग हैं. खोखे को दुकान में तब्दील करना जानते हैं.
हमने उसे बताया कि हमारे बाऊजी की रावलपिंडी में साईकिल की बड़ी सी दुकान हुआ करती थी. मगर वो अफ़साने पढ़ने और लिखने में इतने मसरूफ़ रहते थे कि कस्टमर आता और खाली हाथ चला जाता. लिहाज़ा दुकान बंद हो गयी और उन्होंने लाहोर रेलवे में नौकरी कर ली. वैसे साईकिल हमारे डीएनए में है. हमारे बड़े मामा जी की सरगोधा में साईकिल दुकान थी. पार्टीशन के बाद उन्होंने लखनऊ में भी इसी बिज़नेस को जारी रखा और बहुत तरक्की की. बहुत बड़ी कोठी डाली जो कभी लखनऊ की बड़ी कोठियों में गिनी जाती रही. मैं उन्हीं की तरह बनूँगा.
लाल साईकिल वाली को थोड़ा इत्मीनान हुआ. हमने अपनी माँ से और मां ने बाऊजी से बात की. बाऊजी ने मामा जी से बात की. अगले दिन हम सब लड़की के घर पहुंचे. मामा ने आश्वासन दिया कि भांजे को साइकिल की दुकान खोलकर देना मेरा ज़िम्मा. बात बन गयी. हमने मन ही मन दुकान का नाम भी रख लिया – बिल्लू लाल साईकिल स्टोर.
लेकिन हर प्रेम कहानी में एक ‘लेकिन’ लगा होता है. हमारे साथ भी यही हुआ. स्कूटर पार्ट्स का बिज़नेस करने वाली एक पार्टी लड़की के घर आ धमकी. और लड़की उसके स्कूटर पर बैठ कर फुर्र हो गयी. हम उदास उदास से खड़े खड़े गुब्बार देखते रहे. अब हर कोई ज़िंदगी भर कुंवारा तो बैठा नहीं रहता. हमने अपनी ज़िंदगी का कोर्स बदल लिया और इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के हेडक्वार्टर पर नौकरी करने लगे. देखते ही देखते वक़्त पंख लगा कर उड़ने लगे…और अब आज का वक़्त आ पहुंचा है. कुछ साल के मेहमान हैं.
इस बीच वो लाल साईकिल वाली हमें कभी नहीं दिखी. उसका पूरा कुनबा ही लखनऊ छोड़ सहारनपुर शिफ्ट हो गया. जब कभी किसी साईकिल स्टोर के सामने से हम गुज़रते हैं तो वो लाल साईकिल वाली हमें बहुत याद आयी. जाने कहाँ होगी? उसी की याद में जब हमने कई साल पहले जब काइनैटिक होंडा स्कूटी ली थी तो जानबूझ कर लाल रंग की और जब कार ली तो वो भी लाल रंग की. तभी पीछे से एक साईकिल वाला हमें धीरे से ठोंकता है और इसी के साथ हमारा विजुलाइज़ेशन भी टूट जाता है.