कोटा शहर वैसे अपने कोचिंग संस्थानों के लिए जाना जाता था लेकिन हाल के वर्षों के दौरान यहां पढ़ने वाले छात्रों की आत्महत्या के लिए इसका नाम सुर्खियों में ज्यादा रहता है। इस साल जनवरी से लेकर अब तक यहां आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या चौबीस हो गई है। पिछले कई वर्षों से इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए कोचिंग संस्थानों से उपाय करने को कहा जा रहा है और कई संस्थानों ने इस दिशा में काम किया भी है लेकिन समस्या अभी भी गंभीर बनी हुई है।
छात्रों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की घटनाओं से स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि आखिर हमने कैसी शिक्षा व्यवस्था विकसित की है जिसमें युवा मामूली विफलता पर भी जान देने का फैसला कर लेते हैं। उनके पालन-पोषण और सामाजिक ताने-बाने पर भी सवाल उठता है कि आखिर वे युवाओं में इतना साहस क्यों नहीं पैदा कर पाते कि डॉक्टर- इंजीनियर न बन पाने पर वे दूसरे विकल्पों का चुनाव कर सकें।
सच तो यह है कि हमारे समाज में कुछ इस तरह का वातावरण बन गया है कि उन्हीं बच्चों को मेधावी और काबिल माना जाता है जिनका दाखिला इंजीनियरिंग व मेडिकल संस्थानों में हो जाता है। इस तरह विद्यालय के दिनों से ही बहुत सारे बच्चों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनना शुरू हो जाता है कि उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए किसी इंजीनियरिंग या मेडिकल संस्थान में प्रवेश लेना है। चूंकि इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रतियोगी परीक्षा कठिन और प्रतिस्पर्धा कड़ी होती है इसलिए बड़ी संख्या में प्रवेश पाने से छात्र वंचित रह जाते हैं।
हमारे देश में जिस तरह अच्छी नौकरियों की गुंजाइश कम होती गई है, उसमें तकनीकी शिक्षा के प्रति रुझान अधिक देखा जाने लगा है। इसके पूरा न होने पर बच्चा अपना जीवन ही खत्म करने का निर्णय कर बैठता है। ऐसे में अभिभावकों और कोचिंग संस्थानों का यह दायित्व बनता है कि वे ऐसा वातावरण बनाएं जिसमें छात्रों के मन-मस्तिष्क पर पढ़ाई में विफलता को लेकर मनोवैज्ञानिक दबाव न बन सके है।