डॉ दिलीप अग्निहोत्री
केरल की वामपंथी सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी सबरीमाला मंदिर की परंपरा कायम रही। मासिक पूजा के आखरी दिन एक्टिविस्ट महिलाएं वहां प्रवेश नहीं कर सकी। छह दिन में प्रतिबंधित आयुवर्ग की मात्र बारह महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश का प्रयास किया। इसका मतलब है कि स्थानीय स्तर पर यह कोई मुद्दा नहीं था। इस मंदिर के महिला व पुरुष भक्त परम्परा को बनाये रखना चाहते है। इसे अनावश्यक तूल दिया गया था।
न्यायपालिका के निर्णय तथ्यों प्रमाणों पर आधारित होते है। संविधान की व्यवस्था का भी ध्यान रखना होता है। इसके बाद भी असहमति होने पर पुनर्विचार की अपील हो सकती है। सबरीमाला का प्रकरण इसी श्रेणी में है। लेकिन इतना साफ है कि केरल की वामपंथी सरकार स्थिति को संभालने में विफल रही है। वह चंद महिला एक्टिविस्ट की हिमायत में है। उनको प्रोत्साहन और संरक्षण देने का प्रयास कर रही थी। इस कारण तनाव बढा। केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर चल रहे विवाद के बाद मंदिर बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका दायर करने का फैसला लिया है। त्रावणकोर देवासम बोर्ड अध्यक्ष ए पद्मकुमार ने कहा कि मंदिर में हर उम्र की महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ बोर्ड अपील करेगा।
गौरतलब है कि मात्र दो महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की थी, लेकिन प्रदर्शनकारियों के कारण वह प्रवेश नहीं कर सकी। मतलब साफ है इस इलाके की महिलाओं का ही इन दो एक्टिविस्ट को समर्थन प्राप्त नहीं है। इनके समर्थन में चार अन्य महिलाएं भी शामिल हुई थी। इसी बात से इन्हें अपनी हैसियत का अनुमान लगा लेना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने भगवान अयप्पा के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगा प्रतिबंध हटा दिया था। केरल सरकार ने कहा है कि हम कोर्ट के आदेश को लागू करेंगे। लेकिन इसका व्यापक विरोध हो रहा है।
वामपंथी सरकार की चिंता यह है कि एक्टिविस्ट रेहाना फातिमा और उनकी सहयोगी मंदिर के अंदर प्रवेश नहीं कर सकीं।
विजय दशमी पर नागपुर संबोद्धन में सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी इस मसले पर चिंता व्यक्त की थी। भागवत ने कहा था कि लोगों के दिमाग में यह सवाल पैदा होता है कि सिर्फ हिंदू समाज को ही अपनी आस्था के प्रतीकों पर बार-बार ऐसी बातों का सामना क्यों करना पड़ता है। उन्होंने कहा था कि समाज द्वारा स्वीकृत परंपरा की प्रकृति पर विचार नहीं किया गया। इसने समाज में विभाजन को जन्म दिया। यह स्थिति समाज की शांति और सेहत के लिए अनुकूल नहीं होती है। उन्होंने कहा था कि सभी पहलुओं पर विचार किए बगैर सुनाए गए फैसले और धैर्यपूवर्क समाज की मानसिकता सृजित करने को न तो वास्तविक व्यवहार में कभी अपनाया जाएगा और न ही बदलते वक्त में इससे नई सामाजिक व्यवस्था बनाने में मदद मिलेगी।
मोहन भागवत ने कहा सबरीमाला मंदिर पर हालिया फैसले से पैदा हुए हालात ऐसी ही स्थिति दर्शाते हैं। समाज द्वारा स्वीकृत और वर्षों से पालन की जा रही परंपरा की प्रकृति एवं आधार पर विचार नहीं किया गया। इस परंपरा का पालन करने वाली महिलाओं के एक बड़े तबके की दलीलें भी नहीं सुनी गई। इस फैसले ने शांति, स्थिरता और समानता के बजाय समाज में अशांति, संकट और विभाजन को जन्म दिया है। यह सच्चाई है कि सबरीमला के स्वामी अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के नाम पर चल रहे विवाद का समाधान नहीं हुआ है। वामपंथी सरकार भी मिशनरियों के प्रति उदार है। इस मंदिर में पूजा विधि विशेष है। किसी भी जाति का हिंदू पूरे विधि-विधान के साथ व्रत का पालन करके मंदिर में प्रवेश पा सकता है।
सबरीमाला में स्वामी अयप्पा को जागृत देवता माना जाता है। यहां के दलितों और आदिवासियों की इस मंदिर पर बड़ी आस्था है। सबरीमला मंदिर की विशेष पूजा विधि होती है। यहां दो मुट्ठी चावल के साथ दीक्षा दी जाती है इस दौरान रुद्राक्ष जैसी एक माला पहननी होती है। साधक को रोज मंत्रों का जाप करना होता है। जो दीक्षा ग्रहण करता है उसे स्वामी कहा जाता है। कमजोर वर्ग के लोगों ने मंदिर में दीक्षा ली और वो स्वामी बने। ऐसे लोगों का समाज में बहुत ऊंचा स्थान माना जाता है। इस मंदिर जाति भेद से ऊपर उठकर अय्यपा के प्रत्येक साधक को उच्च स्थान दिया जाता है। इस मंदिर का सदियों पुराना विधि विधान है। यह महिला विरोधी नही है। केवल मान्यता के अनुसार एक आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर रोक थी। इसमें भी कोई जातिभेद नहीं था। प्रलोभन से ईसाई बनाये गए हिन्दू सबरीमला मंदिर में स्वामी के तौर पर दीक्षा लेकर घर वापसी करने लगे थे। यही कारण है कि ये मंदिर ईसाई मिशनरियों को इससे असुविधा हो रही थी। क्योंकि स्वामी धर्म रक्षक की भांति सामने आ जाते थे।
1980 उन्नीस सौ अस्सी में सबरीमाला मंदिर के बागीचे में ईसाई मिशनरियों ने रातों रात एक क्रॉस गाड़ दिया था। फिर उन्होंने इलाके में परचे बांट कर दावा किया कि यह दो हजार वर्ष पुराना सेंट थॉमस का क्रॉस है। इसलिये यहां पर एक चर्च बनाया जाना चाहिये। तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता जे शिशुपालन ने इस क्रॉस को हटाने के लिए आंदोलन छेड़ा था। जिसके चलते यह सजिश नाकाम हुई थी। महिला एक्टिविस्टों ने अब तक मंदिर में प्रवेश की कोशिश की है वो सभी ईसाई मिशनरियों की करीबी मानी जाती है। सबरीमाला में प्रवेश करने की कोशिश करने वाली कोच्चि की सामाजिक विवादों में रही है। उसने कहा था कि महिलाओं का जाना मना है, वहां जाना चाहती हैं। लेकिन उसके निशाने पर केवल हिन्दू धर्म होता है। उसे अमर्यादित टिप्पणी करने में भी संकोच नहीं होता। जाहिर है कि वामपंथी एक्टिविस्ट और केरल की वामपंथी यहां विवाद बढ़ाने का प्रयास कर रहे है। मंदिर के प्रबंधक तो न्यायपालिका में पुनर्विचार याचिका की तैयारी कर रहे है।
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