राजनीति की चौसर पर चाचा-भतीजे का खेल बेहद रोचक हो चला है। चाचा ने गुस्से में आकर सपा से नाता तोड़कर अलग पार्टी बनायी तो लगा था कि चाचा ने भतीजे को शह दे दी लेकिन भतीजा उनसे चार हाथ आगे निकल गया। चाचा के मुद्दे पर न पिता की सुनी न ताऊ की। घर के जिस किसी सदस्य ने चाचा की पैरवी की वही भतीजे के लिए दुश्मन बन गया। लगा था कि पार्टी का मजबूत पिलर ढह जाने से संगठन की नींव हिल जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
घर से लेकर पार्टी सदस्यों ने भतीजे को लाख मनाने की कोशिश की लेकिन हर कोशिश नाकाम रही। चाहें 2017 का विधानसभा चुनाव रहा हो या फिर 2019 का लोकसभा चुनाव। यहां तक कि 2022 के विधानसभा चुनाव में भी भतीजे ने चाचा को घास नहीं डाली। हालांकि भतीजे की हठधर्मिता ने पार्टी का नुकसान जरूर पहुंचाया लेकिन पिछले चुनाव से अधिक सीटें लाकर भतीजे ने यह दिखा दिया कि राजनीति की चौसर पर बाजी अभी भी उसी के हाथ में है।हाल ही में सम्पन्न हुए चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन से धृतराष्ट्र सरीखे पिता की बांछे खिली हुईं है तो दूसरी ओर तिकड़मी चाचा नयी चाल में उलझे हुए हैं। हाल ही में एक मजबूत मोहरा भी पिट चुका है।
आजम खां के पलटी मार जाने से शिवपाल काफी आहत हैं। उम्मीद थी कि आजम खां के मिल जाने से तीसरा मोर्चा तैयार कर न सिर्फ भाजपा के खिलाफ रणनीति तैयार करने में मदद मिलेगी बल्कि उस भतीजे को भी अहसास हो जायेगा कि जो उनकी राजनीतिक हैसियत से परिचित नहीं। यही वजह है कि जिन दिनों आजम खां जेल में बंद थे और अखिलेश यादव उनसे मिलने एक भी दिन नहीं गए उन्हीं दिनों शिवपाल यादव आजम खां के इर्द-गिर्द मंडराते रहे और इस बात का अहसास दिलाते रहे कि वे उनके खास हैं। शिवपाल का यह भ्रम ज्यादा दिनों तक नहीं रहा। हाल ही में जब आजम खां ने रामपुर लोकसभा उपचुनाव से सपा प्रत्याशी की घोषण की तो शिवपाल के हाथों से बाजी निकलती नजर आयी।
राकेश श्रीवास्तव
समाजवादी पार्टी में साजिशों की चौसर पर शह-मात का खेल पूरे शवाब पर है। खिलाड़ी हैं अखिलेश-शिवपाल और प्यांदों की भूमिका में आजम खां और उनके सरीखे वे नेता जो यह तय नहीं कर पा रहे कि वे राजनीति में अपरिपक्व अखिलेश की सपा में रहें या फिर राजनीति के दिग्गज खिलाड़ी शिवपाल की प्रसपा में। इधर धृतराष्ट्र की भूमिका वाले सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव का पुत्रमोह सपा की दुर्दशा के बाद भी छूटता नजर नहीं आ रहा। रही बात रामगोपाल यादव की तो फिलवक्त वे भीष्म पितामह की भूमिका में चुपचाप नजारा देख रहे हैं। वैसे भी रामगोपाल की प्रतिबद्धता सपा के साथ है भले ही उसकी कमान राजनीति के अनाड़ी के हाथों में ही क्यों न हो।
इधर समाजवादी दिग्गजों के खेल से अलग सपा में एक वर्ग ऐसा भी है जो आज भी पार्टी को पुनर्जीवित होते देखना चाहता है। इस वर्ग का मानना है कि जब तक मुलायम, आजम, रामगोपाल और शिवपाल मिलकर पार्टी में सक्रिय भूमिका नहीं निभाते तब तक पार्टी को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। इस वर्ग का मानना है कि अहंकार और स्वाभिमान की लड़ाई से पार्टी को काफी नुकसान हो चुका हैजिसका फायदा भाजपा को मिल रहा है। हाल ही में सम्पन्न हुए इन्वेस्टर्स मीट की सफलता ने जहां एक ओर भाजपा को और अधिक मजबूत किया है वहीं दूसरी ओर सपा के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अर्थात भविष्य भी हाथ से निकलता नजर आने लगा है। सपा के भविष्य में स्वयं का हित देखने वाले सपाई मानते हैं कि हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में हुई हार लम्बे समय तक सपा को संकट से उबरने नहीं देगी।
फिलवक्त तो शह-मात के इस खेल में आजम खां की भूमिका सबसे अहम है। यदि आजम खां ने अखिलेश को झटका देते हुए शिवपाल से हाथ मिला लिया तो निश्चित तौर पर वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव अखिलेश को उनकी राजनीतिक हैसियत से परिचय करा देगा। वहीं दूसरी ओर सपा के दिग्गजों की नाराजगी के बावजूद अखिलेश की सपा को पिछले लोकसभा चुनाव से अधिक सीटें मिलतीं हैं तो यह निश्चित जान लीजिए सपा के इस युवराज का अहंकार सिर चढ़कर बोलेगा। ऐसी स्थिति में शिवपाल के बाद आजम दूसरे बड़े नेता होंगे जिन्हें बेआबरू होकर सपा से बाहर जाना होगा। सच तो यह भी है कि राजनीतिक मजबूरी भले ही कोई रही हो, अखिलेश को आजम खां और उनके कार्य करने का तरीका कभी रास नहीं आया है।
फिलहाल आजम खां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कृपा से जेल में लम्बा समय बिताकर आए हैं। उनके चक्षु ज्ञान खुल चुके होंगे कि राजनीति में साख जमाने और अपने कथित कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए सक्रिय राजनीति में बने रहना अत्यंत आवश्यक है भले ही पार्टी की कमान किसी अनाड़ी के हाथों में क्यों न हो। पिछले दिनों नाराजगी के बावजूद आजम खां जिस आत्मीयता के साथ अखिलेश से मिले हैं उसे देखकर तो ऐसा ही लगता है कि वे शिवपाल से हाथ मिलाकर जोखिम नहीं लेना चाहेंगे।
इतिहास गवाह है कि जिस किसी बड़े नेता ने अपनी मूल पार्टी से नाता तोड़ा है उसका राजनीतिक भविष्य संकट में पड़ा है। चाहें वह पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह (दिवंगत) रहे हों या फिर उमा भारती। स्वामी प्रसाद मौर्य हों या फिर साक्षी महाराज। ऐसे सैकड़ों नेता रहे हैं जो मूल पार्टी से अलग होकर एक विधायक तक नहीं जिता पाए हैं। अन्ततः ऐसे नेताओं के लिए घर वापसी ही एकमात्र चारा रहा है।
बात यदि आजम खां की करें तो भले ही आजम खां तुनक मिजाज वाले नेता रहे हों लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि उन्होंने सपा का साथ कभी नहीं छोड़ा है भले ही सपा सत्ता में रही हो या फिर विपक्ष में। एक समय तो ऐसा भी आया था जब अखिलेश की जिद और मुलायम की मूक सहमति ने आजम को पार्टी छोड़ने पर विवश कर दिया था लेकिन जल्द ही उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वे सपा छोड़कर कहीं जाने वाले नहीं।
पिछले दिनों नाटकीय घटनाक्रम में कुछ ऐसा ही देखने को मिला। जेल में बंद होने के दौरान और जेल से छूटने के बाद आजम खां से शिवपाल की कई चरणों में मुलाकात इस बात के संकेत दे रही थी कि शिवपाल किसी तरह से आजम को अपने साथ मिलाकर एक तीसरे मोर्चे का गठन करने में कामयाब हो जायेंगे। आजम खां की अखिलेश से नाराजगी ने काफी हद तक आजम का रुख तय भी कर दिया था लेकिन ऐन वक्त पर मुलायम सिंह यादव, रामगोपाल यादव, कपिल सिब्बल और जयंत चौधरी समेत पार्टी के कई दिग्गज नेताओं ने बाजी उलट दी। दिग्गजों के मनाने के बाद आजम खां ने अखिलेश से मिलने के लिए हामी भरी।
अखिलेश और आजम मिले तो गिले-शिकवे दूर हुए। वक्त की नजाकत को भांपकर अखिलेश ने परिस्थितियों से समझौता करने में ही भलाई समझी। इस मुलाकात का नतीजा भी नजर आया। कहा जा रहा है कि आजम को मनाने के लिए अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी में महत्वपूर्ण पद पर बिठाने का वायदा किया है। अखिलेश के लॉलीपॉप का आजम पर कितना असर होगा, ये तो भविष्य में देखने को मिल जायेगा लेकिन इतना जरूर तय है यदि आजम ने सपा से नाता तोड़ा तो पार्टी में गलत संदेश जायेगा। आजम के साथ ही अन्य बडे़ नेताओं का मोह भी सपा से भंग हो सकता है जो सपा के लिए आत्मघाती होगा।
इस सबके बावजूद मौजूदा परिस्थितियां साफ संकेत दे रहीं हैं कि सपा के गृह नक्षत्र ठीक नहीं चल रहे। जो काम सपा को करने चाहिए थे वह काम योगी आदित्यनाथ की टीम करने में सफल हो रही है। हाल ही में सम्पन्न हुए इन्वेस्टर्स मीट में 80 हजार करोड़ के निवेश ने यूपी की जनता में भाजपा के प्रति विश्वास में और बढ़ोत्तरी दर्ज की है। लोगों को लगने लगा है कि भाजपा सिर्फ मंदिर-मस्जिद में ही नहीं बल्कि यूपी के विकास पर भी गंभीर है। बता दें, इन्वेस्टर्स मीट में इन्वेस्ट करने वाले उद्योगपति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टीम से ताल्लुक रखते हैं।
सर्वविदित है, देश का नामचीन उद्योगपति जिस किसी दल के साथ रहा है उस दल को सत्ता से उखाड़ने के लिए चमत्कार की आवश्यकता पड़ी है। इन्वेस्टर्स मीट के बाद तो सपाई भी यह दावा करने लगे हैं कि इस कार्यक्रम के बाद से भाजपा की साख में इजाफा हुआ है जबकि सपाई अभी तक आपसी समस्याओं का समाधान तक नहीं कर सके हैं। ज्ञात हो सदन की कार्रवाई के दौरान शिवपाल यादव ने समाजवादी विधायकों की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि यदि उनकी बात मानकर 100 सीटें प्रसपा को दी गयी होती तो सपा विपक्ष में नहीं बल्कि सत्ता पक्ष की तरफ बैठी होती।
अखिलेश ने भले ही शिवपाल के इस बयान को उनकी खीझ समझा हो लेकिन मुलायम सिंह यादव, रामगोपाल यादव और आजम खां सरीखे नेता यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि अखिलेश ने अपनी हठ छोड़कर शिवपाल को गले लगा लिया होता और पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी होती तो निश्चित तौर पर यूपी में जिस तरह का माहौल बन गया था उसका लाभ सपा को मिल सकता था।
इधर आजम और अखिलेश की मुलाकात भी किसी रहस्य से कम नहीं और वह भी तब जब शिवपाल यादव ने आजम खां को लगभग अपने पक्ष में करके तीसरे मोर्चे की रूपरेखा तैयार कर ली थी। ज्ञात हो जेल प्रवास के दौरान अखिलेश आजम से मिलने कभी नहीं गए जबकि शिवपाल लगातार आजम और उनके परिजनों के सम्पर्क में बने रहे। आजम और शिवपाल के बीच खिचड़ी पक ही रही थी कि अखिलेश की आजम से हुई मुलाकात ने शिवपाल के मंसूबों पर पानी फेर दिया। देखा जाए तो लगभग ढाई साल बाद अखिलेश को एकाएक आजम खां से मिलने की क्या आवश्यकता आन पड़ी, ये अपने आप में ही कई सवाल खड़े कर रहा है।
पार्टी में हो रही चर्चा को आधार माना जाए तो दोनों की मुलाकात में कपिल सिब्बल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अब प्रश्न यह भी उठता है कि आखिरकार कपिल सिब्बल को आजम-अखिलेश की मुलाकात से क्या फायदा हो सकता। बता दें, कपिल सिब्बल को सपा के बैनर तले राज्यसभा भेजने में आजम खां की भूमिका सबसे अधिक थी।
प्रश्न यह भी उठता है कि जब पिछले ढाई साल से अखिलेश और आजम की मुलाकात नहीं हुई तो आखिरकार जेल में बंद होते हुए कपिल सिब्बल के पक्ष में आजम ने अपनी सिफारिश अखिलेश तक कैसे पहुंचायी। अन्दरखाने से मिल रही जानकारी बता रही है कि अखिलेश यादव भले ढाई साल तक आजम खां से मिलने जेल न गए हों लेकिन सपा के दिग्गज नेता और कर्मठ कार्यकता लगातार आजम के सम्पर्क में रहे हैं। इन्हीं दिग्गजों के माध्यम से आजम ने कपिल सिब्बल के पक्ष में अपनी इच्छा अखिलेश के समक्ष उजागर की थी।
वक्त की नजाकत को भांप चुके अखिलेश ने निर्णय लेने में तनिक भी देरी नहीं की और कपिल सिब्बल को सपा के बैनर तले राज्यसभा भेजने के लिए तैयार हो गए। आजम के इसी अहसान ने शायद कपिल सिब्बल को अखिलेख की चिरौरी करने पर विवश कर दिया होगा। दूसरी ओर आजम भी राजनीति के आखिरी पड़ाव में पाला बदलने के मूड में नहीं थे लिहाजा अखिलेश की एक मुलाकात में वह बात बन गयी जिसे लेकर पार्टी के लोग सशंकित थे। बता दें, जेल से छूटने से पहले और बाद में भी आजम खान की अखिलेश यादव के प्रति नाराजगी साफ हो गई थी। यदि कपिल सिब्बल मध्यस्थता न करते तो निश्चित तौर पर आजम की नाराजगी पार्टी में विद्रोह की स्थिति पैदा कर सकती थी।
अब देखना यह है कि पिछले दिनों आजम और अखिलेश की मुलाकात का असर कितने समय तक बरकरार रह पायेगा। ऐसी आशंका इसलिए कि जहां एक ओर अखिलेश यादव को आजम खां कभी फूटी आंख नहीं सुहाए वहीं दूसरी ओर पार्टी में सर्वेसर्वा बने रहने की इच्छा रखने वाले आजम खां कब अखिलेश के खिलाफ मुखर हो जाएं कहा नहीं जा सकता।
डैमेज कंट्रोल:
आजम खां के जेल प्रवास के दौरान लगभग दो वर्षों तक अखिलेश ने उनसे मुलाकात तो दूर की बात दूरभाष पर हालचाल तक नहीं लिया। इधर शिवपाल यादव जरूर आजम पर डोरे डालते रहे और उनसे मिलने जेल से लेकर अस्पताल तक का चक्कर लगाते रहे। जमानत पर जेल से बाहर आए आजम जिन दिनों अस्पताल में भर्ती थे उन्हीं दिनों अखिलेश की लगभग ढाई वर्ष बाद मुलाकात हुई और वह भी मुलायम, रामगोपाल और कपिल सिब्बल सरीखे नेताओंके दबाव में। अखिलेश से पहली मुलाकात में आजम खां की नाराजगी दिखी लेकिन यह नाराजगी चंद मिनटों में ही उस वक्त दूर हो गयी जब अखिलेश ने आजम को पार्टी के लिए महत्वपूर्ण बताते हुए उन्हें अहम जिम्मेदारी सौंपी। दूसरी ओर मरता क्या न करता वाली स्थिति से गुजर रहे आजम खां ने फैसला लेने में देर नहीं लगायी और मीडिया तक संदेश पहुंचाया कि वे जब तक जीवित हैं सपा में ही रहेंगे, कहीं जाने वाले नहीं। मुहर उस वक्त लगी जब रामपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा प्रत्याशी के नाम की घोषणा स्वयं आजम खां ने की। जाहिर है सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते प्रत्याशी के नाम की घोषणा करने का अधिकार अखिलेश यादव ने ही दिया होगा। फिलहाल पार्टी में एक बड़े डैमेज को कंट्रोल किया जा चुका है। अखिलेश ने आजम को आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान भी अहम जिम्मेदारी देने का निर्णय लेकर शिवपाल की उम्मीदों पर पूरी तरह से पानी फेर दिया है।
सपा का दलितों पर दांव और पुराने खिलाड़ियों को एक बार फिर से अहम जिम्मेदारी :
बड़ों की नाराजगी के बीच अखिलेश ने मुसलमानों के साथ ही अब दलितों पर भी दांव खेलना शुरु कर दिया है। हालांकि यह खेल अखिलेश ने मुख्यमंत्री रहते हुए वर्ष 2016 में ही उस वक्त शुरु कर दिया था जब डेढ़ दर्जन पिछड़ी जातियों का अनुसूचित जातियों में शामिल किया गया।सपा के दलित कार्ड से भाजपा को तो कोई खास नुकसान होता नजर नहीं आ रहा अलबत्ता बसपा को नुकसान से इनकार नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि सपा के दलित कार्ड ने बसपा को अपनी रणनीति नए सिरे से तैयार करने पर विवश कर दिया है। सपा का दलितों पर दांव और पुराने खिलाड़ियों को एक बार फिर से अहम जिम्मेदारी दिए जाने के बाद से सपा कार्यकर्ताओं में उत्साह साफ देखा जा रहा है। इस सबके बावजूद पार्टी कार्यकर्ताओं में इस बात की कसक बनी हुई है कि यदि यही काम विधानसभा चुनाव से पहले कर लिया जाता तो शायद सपा आज सत्ता में नजर आती।