डॉ दिलीप अग्निहोत्री

उनका वह चित्र खूब चला जिसमें वहाँ का सेना प्रमुख जावेद वाजवा उन्हें लगभग दबोचे हुए खड़ा है। बाजवा बिल्कुल सीधे खड़े है। सिद्धू की गर्दन उनकी बाहों झुकी है, निर्लज्ज तरीके से हंस भी रहे है। पूरा पाकिस्तान देख रहा है कि इस व्यक्ति के देश में राष्ट्रीय शोक चल रहा है , यह अट्टहास कर रहा है। जबकि ये संवैधानिक पद पर आसीन है। बाजवा ने यह तस्वीर अपने को बुलंद और भारतीय पंजाब के मंत्री को कमजोर दिखाने के लिए खूब चलवाई। वहां इस बॉडी लैंग्वेज पर चर्चा भी हुई। इसमें सिद्धू का मजाक बनाया गया। उनका अपमान यहीं तक नहीं रुका। उन्हें पाक अधिकृत कश्मीर के राष्ट्रपति के बगल में बैठा कर भी अपमानित किया गया। यह वह क्षेत्र है जिस पर वैधानिक रूप से भारत का दावा है। भारतीय संसद सर्वसम्मति से इसे वापस लेने का प्रस्ताव पारित कर चुकी है।
पाकिस्तान का जन्म नफरत के द्वारा हुआ था। यही उंसकी आंतरिक और बाहरी फितरत बन चुकी है। पड़ोसी होने के कारण यह भारत की बड़ी समस्या है। भारत शांतिवादी देश है। यह भारत की मूल प्रवृति है। इस प्रकार भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अपना मूल स्वभाव छोड़ना मुश्किल होता है। भारत ने सदैव अपने स्तर से शांति व सौहार्द के प्रयास किये है।
ताशकंद समझौता, शिमला समझौता, लाहौर बस यात्रा, आगरा शिखर सम्मेलन और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की पुत्री के निकाह में भारतीय प्रधानमंत्री का जाना आदि संबन्ध को सामान्य बनाने के कूटनीतिक प्रयास थे। इन सबको विदेश नीति के तत्व रूप में देखा जा सकता है।
गौरतलब यह है कि ऐसे सभी प्रयास प्रधानमंत्रियों के स्तर पर ही किये गए। इसके बाबजूद पाकिस्तान नहीं बदल सका। ऐसे में किसी मणिशंकर अय्यर, सलमान खुर्शीद, नवजोत सिद्धू आदि लोगों से किसी प्रकार की उम्मीद करना बेमानी है। इनकी विश्वसनीयता जब अपने ही देश में नहीं है, तब पाकिस्तान में इनकी क्या भूमिका हो सकती है। इतना अवश्य है कि वहाँ के चंद लोगों में इन्हें वाहवाही मिल जाती है। इसी को ये अपनी उपलब्धि मान लेते है।
नवजोत सिद्धू किसी अन्य समय पर पाकिस्तान जाते तब इतना बखेड़ा न होता। ये वही सिद्धू है जो अटल बिहारी वाजपेयी को अपना राजनीतिक गुरु मानते रहे है। उनकी ही प्रेरणा से वह राजनीति में आये थे। उन्हीं अटल की चिता ठंडी नहीं हुई थी, राष्ट्रीय शोक चल रहा था। सिद्धू इमरान के शपथ ग्रहण में पहुंच गए। उनकी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी। कम से कम ऐसे भोंडे प्रदर्शन से उन्हें बचना चाहिए था।
सिद्धू अपने को शांतिदूत के रूप में प्रदर्शित करने की नाकाम कोशिश कर रहे है। लेकिन उनका यह अंदाज निकृष्ट श्रेणी की कमेडी जैसा है। पाकिस्तानी सैनिकों की बबर्रता के शिकार हुए सैनिकों के परिजन सिद्धू से तीखे सवाल पूंछ रहे है। सिद्धू के पास इसका कोई जबाब नहीं है।
इस यात्रा का पंजाब में ही विरोध शुरू हुआ तो सिद्धू को सफाई देनी पड़ी। लेकिन इससे यही लगा कि वह अपने बारे में बड़ी गलतफहमी के शिकार है। कहा, मैें मोहब्बत का पैगाम लेकर पाकिस्तान आया हूं। हिंदुस्तान से जितनी मोहब्बत लेकर यहां अाया था उससे उससे सौ गुनी लेकर जा रहा हूं। जो वापस आया है वह सूद सहित है। हमारी सरकार एक कदम बढ़ेगी तो पाक के लोग दो कदम आगे आएंगे। सिद्धू के यह कहने का कोई आधार ही नहीं है। वह बेशर्मी लेकर गए थे ,और शर्मिंदा होकर वापस लौटे है। इसी को वह छिपाने की कोशिश में लगे है। सौ गुना मोहब्बत लाने का दावा बेमानी है। क्या पाकिस्तान ने आतंकवाद रोकने बात कही है, सिद्धू कह रहे है कि भारत एक कदम चलेगा तो पाकिस्तान दो कदम चलेगा। इसका क्या मतलब हुआ। यही न कि पाकिस्तान शांति के लिए तैयार बैठा है। भारत कदम बढ़ाए।
सिद्धू का यह कथन अपने ही देश के साथ विश्वासघात जैसा है। शांति तभी हो सकती है, जब पाकिस्तान सीमापार के आतंकवाद पर रोक लगाए। सिद्धू का झूठ देखिये, वह कह रहे है पाकिस्तान रिश्ते सुधारने को दो कदम चलना चाहता है।
वस्तुतः सिद्धू ने देश से अधिक महत्व निजी दोस्ती को दिया। उन्होंने निजी कारणों से पाकिस्तान जाने की अनुमति मांगी थी। अच्छा हुआ केंद्र सरकार ने इसकी अनुमति दी। न देती तो असहिष्णुता का आरोप लगता। इस बहाने सिद्धू की सच्चाई भी सामने आ गई।
लश्कर ए तैय्यबा सरगना हाफिज सईद के अलावा तहरीक ए तालिबान, जैश ए मोहम्मद, हिज्बुल मुजाहिदीन, हरक़त उल मुजाहिदीन,हक्कानी नेटवर्क लश्कर ए झंगवी के आतंकी भी सिद्धू के साथ इस महफ़िल में मौजूद थे। इस माहौल में कोई कायदे का इंसान तो बैठ ही नहीं सकता। सिद्धू अपने बारे में विचार करें।