समीर गांगुली
एक था सांप।
छोटा-सा, बस एक फुट बड़ा।
लेकिन वह बड़ा शर्मीला था। पेड़ के पीछे, पत्तियों के नीचे छिपा रहता। और वहां से दुनिया को देखता रहता।
उसे धूप का रंग, हवा की ठंड, बारिश की रिमझिम सब । अच्छे लगते थे।
कभी-कभी वह इन्हें देखने और महसूस करने के लिए खुले में आ जाता। लेकिन जरा सी खड़-खड़ सुनते ही भाग कर छिप जाता।
वह जोर की आवाज सुनकर भी आंखें छिपा लेता। उसे लगता, आंखें फेर लेने से उसे कोई नहीं देख पाएगा। । लेकिन मेढकों को यह बात पता चल गई।
और वे दल बनाकर आते और उसके पीछे से जोर से चिल्लाते, ‘टर्रSSSSS!’ । उनकी ये आवाज सुनते ही वह घबरा जाता और भागकर कहीं छिप जाता।
इस तरह सबको पता चल गया कि यह छोटा सा सांप डरपोक भी है।
फिर तो सब उससे डरना भूल उसे डराने लगे।
लेकिन सांप धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था।
एक दो मौसम बदलते ही वह दो फुट का हो गया। अब वह सरी-सर्र करते हुए तेजी
से दौड़ लगा सकता था। लेकिन अब वह चूहों, कौवों और मुर्गियों से भी डरता था।
मेढकों, गिलहरियों और कुछ दूसरे जीव-जंतुओं ने उससे दोस्ती करनी चाही थी, मगर जाने क्यों वह किसी से दोस्ती नहीं करना चाहता था।
एक बार एक बंदर ने उसे उठाया और लेकर पेड़ पर चढ़ गया। इतनी ऊंचाई पर जाकर सांप को बहुत डर लगा।
वह हिस्स-हिस्स करके रोने लगा। लेकिन बंदर न तो उसकी इस आवाज से डरा और न ही उसे दया आयी। बस उसने सांप को एक डाली पर टांग दिया और उसे घबराया देख खी-खी करके हंसता रहा।
फिर थोड़ी देर बाद उसे वहीं टांग कर नीचे उतर आया।
अब शर्मीला सांप और घबराया। उसकी समझ में नहीं आया कि नीचे कैसे उतरे।
तभी एक आवाज आई, “क्या तुम उड़कर नीचे नहीं जा सकते ?”
उसने मुड़कर देखा, तो सामने एक हरे रंग का उसके जितना लंबा ही सांप लटक रहा था।
शर्मीला सांप उसे कई पल तक देखता रहा, फिर बहुत ही महीन आवाज में बोला,” तुम कौन हो? मुझे नीचे उतरना है।” । हरा सांप बोला,“ मैं तो उड़ने वाला सांप हूं। पेड़ों पर ही रहता हूं। अभी उड़कर दूसरे पेड़ पर चला जाऊंगा। तुम उड़ नहीं सकते, तो धीरे-धीरे उतर जाओ। कोशिश करोगे तो जरूर कामयाब होगे।”
हरा सांप उड़कर दूसरे पेड़ पर जाकर लटक गया।
शर्मीला सांप थोड़ी देर तक चुपचाप कुछ सोचता रहा। फिर उतरने की कोशिश करने लगा।
बार-बार की कोशिश करके वह आखिर में नीचे उतर ही आया । नीचे आकर उसे अच्छा लगा। फिर उसने महसूस किया कि पेड़ के ऊपर लटकना भी बुरा नहीं था। वहां से नीचे की दुनिया बहुत खूबसूरत थी।
और अगले दिन वह सचमुच पेड़ पर चढ़ने लगा और एक ही बार में ऊपर तक पहुंच गया। वहां उसे एक कोटर दिखाई दिया। वह कोटर के अंदर चला गया और वहां की गरमाहट को महसूस करते हुए देर तक धरती की हरियाली को देखता रहा। इस बीच एक चील ने उस पर हमला करना चाहा, लेकिन वह कोटर के अंदर छिप गया और चील उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकी।
शर्मीला सांप पेड़ पर चढ़ना और उतरना सीख गया था। । दूसरे कई जीव-जंतुओं ने उसे ऐसा करते देखा था और पेड़ के नीचे अक्सर आने वाले एक बूढ़े कछुए ने तो ताली भी बजाई, जिसे सुनकर सांप और भी शर्मा गया था। कुछ समय और बीता। जहां जंगल के जानवर और पक्षी खड़ी लंबाई में बड़े हो रहे थे,वहीं शर्मीला सांप पड़ी लंबाई में बड़ा हो रहा था।
अब वह तीन फुट का हो गया था।
लेकिन अब भी वह बहुत शर्मीला था। दूसरे जानवरों को देखकर अपना रास्ता बदल लेता था या फिर छिप जाता था।
बस वह बूढ़े कछुए से नहीं डरता था क्योंकि उसे अक्सर पत्थर समझ लेता था। एक दिन तो गजब हुआ।
जाड़े की धूप का दिन था। वह सूरज की गरमी लेने के लिए एक पत्थर पर जा बैठा और धूप तापतेतापते वहीं पर सो गया।
असल में वह जिसे पत्थर समझ कर सोया था, वह बूढ़ा कछुआ था। कछुए का जब धूप तापना पूरा हुआ तो उसे भूख लगने लगी। और वह मछली खाने तालाब की तरफ चल दिया।
और जब उसने तालाब में डुबकी लगाई, तो शर्मीले सांप की नींद टूटी। वह छिटककर कछुए की पीठ से दूर
जा गिरा।
एक बार फिर डरकर ‘हिस्सहिस्स’ की भाषा में ‘बचाओ-बचाओ’ करने लगा।
उसे बचाने पानी के कई जीव आगे आए। मछलियां, केकड़े और कछुए । सबने एक आवाज में कहा, “तैरो।” वह बोला, “मुझे नहीं आता।” इतने में पानी का एक सांप आगे आया और बोला, “सब सांप तैर सकते हैं। तुम भी कोशिश करो, सीख जाओगे।”
फिर शर्मीले सांप ने कोशिश की। तालाब के सभी जीव-जंतुओं ने पानी की छपाक-छपाक करके उसका हौसला बढ़ाया। और अब वह सचमुच तैर रहा था। वह तैरते-तैरते तालाब के किनारे तक जा पहुंचा।
उसने तालाब के किनारे रुक कर खुद से कहा,“ तालाब में तैरना तो आसान है और मजेदार भी।”
और फिर वह मजे से तालाब में कूद गया और तैरते-तैरते तालाब के दूसरे किनारे तक पहुंच गया।
शर्मीला सांप अब तैरना भी सीख गया था।
जमीन पर दौड़ना और पेड़ पर चढ़ना तो शर्मीला सांप पहले ही। सीख चुका था।
कुछ समय और बीता। शर्मीला सांप अब पूरे चार फुट का हो गया था। अब वह फन भी फैला सकता था, लेकिन फन फैलाना उसे अच्छा नहीं लगता था। वह कई बार समझ नहीं पाता था कि छोटे-छोटे जीव-जंतु उसे देखकर डरते क्यों हैं और चीखकर भाग क्यों जाते हैं। एक बार जंगल में एक साधु आया
और पीपल के पेड़ के नीचे एक आसन जमाकर बैठ गया। । सांप ने उसे दूर से देखा । वह साधु बिना हिले-डुले रात भर बैठा रहा।
फिर सुबह कुछ लोग ढोल-ताशा बजाते हुए आए और साधु के लिए कुछ खाना और दूध रखकर चले गए।
साधु आंखें बंद करके चुपचाप बैठा रहा। यह देख सांप को बड़ा ताज्जुब
हुआ।
वह साधु के नजदीक चला गया। और देर तक चुपचाप बैठा रहा।
फिर साधु ने आंखें खोली। पास रखे कटोरे से थोड़ा दूध पीया। तभी उसकी नज़र शर्मीले सांप पर पड़ी।
साधु हंसकर बोला, “अरे तू भी है! आ जा, ले तू भी दूध पी।”
शर्मीला सांप पहली बार किसी से बिना डरे साधु के कटोरे से दूध पीने लगा।
उसके बाद जो दूध बचा, उसे साधु पी गया।
शर्मीला सांप इसके बाद सरसराते हुए एक पेड़ पर चढ़ कर एक कोटर में जा बैठा और वहां से टकटकी लगाकर बाहर की दुनिया को देखने लगा।
इसके बाद यह रोज का नियम हो गया।
साधु से मिलने रोज भक्त लोग आते, दूध-फल लाते। और उनके जाने के बाद शर्मीला सांप अपने छिपने की जगह से निकल आता और साधु के पास जाकर बैठ जाता। जब साधु ध्यान से उठता, तो दोनों कटोरे से बारी-बारी से दूध पीते।
अब शर्मीले सांप का शर्माना और डरना बिल्कुल ही खत्म हो गया। वह साधु के बहुत ही पास जाने लगा। एक दिन साधु ने उसे उठाकर अपनी गरदन पर डाल दिया। साधु के शरीर की गरमाहट पाकर सांप को बहुत अच्छा लगा। वह देर तक साधु की गरदन से लिपटा रहा।
उसके बाद उसका जब जी चाहता साधु के सिर-गरदन पर अपना डेरा जमा लेता। फिर एक दिन साधु के भक्त लोगों ने यह दृश्य देख लिया। वे इसे एक चमत्कार समझकर साधु की जयजयकार करने लगे। यह बात दूर-दूर तक फैलने लगी। लोग सारा दिन यह देखने के लिए दल बनाकर आने लगे।
एक दिन साधु ने कहा, “प्यारे सांप, अब मुझे यहां से जाना होगा। लोग मेरी साधना में बाधा डाल रहे
हैं। अब तुम भी अपना रास्ता पकड़ो।”
लेकिन सांप साधु की गरदन से लिपटा रहा।
साधु ने उसे उतारने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं उतरा। । हारकर साधु बोला, “तो चल, तू भी मेरे साथ। एक और दुनिया को देख।”
अब सांप और साधु चल पड़े। साधु एक शहर पहुंचा। वहां वे एक मंदिर में रहे। शर्मीले सांप को वहां का शोर पसंद नहीं आया। यहां साधु की गरदन से उतरकर इधर-उधर घूमने की आजादी भी नहीं थी। एक कुत्ता उस पर घात लगाने को तैयार बैठा था।
दो दिन बाद वे एक गांव में पहुंचे। वहां साधु के गले में सांप देखकर कई घरों से भिक्षा मिली। । शुरू में बच्चे सांप से डरे, लेकिन
जल्दी ही उन्हें पता चल गया कि यह सांप डरपोक है, उनकी तरफ देखता भी नहीं। फिर कुछ शैतान बच्चे सांप की पूंछ खींचने लगे।
एक दिन साधु ने सांप से कहा, “बच्चे, अब डरने से काम नहीं चलेगा। जीना है, तो डराना सीखो।” __ और अगले दिन जब एक बच्चे ने सांप की पूंछ खींची, तो उसने इतनी जोर से फुफकार भरी कि वह लड़का डरकर इतनी जोर से चिल्लाया कि सांप को हंसी आ गई।
फिर साधु भी हंस दिया। उसके बाद बच्चे सांप से दूर ही रहते।
एक गांव से दूसरे गांव में डेरा जमाते और भिक्षा मांगते कई दिन बीत गए। एक दिन साधु ने सांप से कहा, “अब मेरा हिमालय की तरफ जाने का समय आ गया है। मैं बर्फ से ढकी गुफा में साधना करूंगा। तुम चाहो, तो रास्ते में कहीं भी मुझे छोड़कर अलग जा सकते हो। लेकिन सांप साधु की गरदन से लिपटा रहा। वे चलते गए। पहाड़ पार किए। फिर एक ऐसी जगह आ पहुंचे, जहां बर्फ ही बर्फ थी। शर्मीले सांप का ठंड से बुरा हाल हो गया। वे एक गुफा में पहुंचे। साधु ने आग जलाई। सांप की जान में जान आई। । उसके बाद वह गरम जगह ढूंढने लगा क्योंकि अब उसे लंबी नींद में जाना था।
अब साधु अपनी लंबी साधना में बैठ गया और सांप जमीन के अंदर
एक बिल में चला गया।
अब दोनों को कुछ खाए-पीए बिना कुछ महीने बिताने थे।
जल्द ही गुफा का मुंह भी बर्फ से ढक गया।
धीरे-धीरे तीन महीने बीत गए। फिर बर्फ पिघलने लगी। धूप खिलने लगी। पेड़-पौधे हरी पत्तियां धारण करने लगे। चिड़ियां चहचहाने लगीं। छोटे-बड़े पशुओं की आवाजें सुनाई देने लगी।
साधु की साधना पूरी हुई, उसने आंखें खोली। । इधर सांप की भी नींद पूरी हुई। वह बिल से बाहर निकल आया। बाहर के उजाले ने उसे आकर्षित किया। वह गुफा से बाहर निकल आया। यह दुनिया उसे बहुत ही निराली लगी। एक बड़ी सी चट्टान पर चढ़कर वह अपने आसपास को देखता रहा और आनंद लेता रहा।
कुछ देर बाद साधु भी गुफा से बाहर आया और सांप से बोला, “आ भाई कुछ खा पी लेते हैं। फिर मैदानों की तरफ चलेंगे। जहां तेरा जी चाहे, साथ छोड़ देना।” । सांप चुपचाप उसके पीछे-पीछे गुफा में चला गया।
वह खुद भी नहीं जानता था कि वह कब तक साधु के साथ रहेगा
और कब कोई जगह उसे इतना भाएगी कि वह वहीं रुक जाना चाहेगा। । मगर अब वह न तो शर्मीला था और न ही डरपोक। बस वह एक अनोखा सांप था। – पायस से
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