(अंतरराष्ट्रीय बालश्रम निषेध दिवस 12 जून पर विशेष)
अजीत सिंह
बात 2020 की है। प्रयागराज में जाते वक्त हमेशा छोटे बच्चे भिखारी के रूप में टकराते। मैंने एक दिन तीन बच्चों को पकड़ा और उनके माता-पिता तक उनको लेकर गया। अपनी पूरी टीम के साथ उनको समझाइश दी। उन्हें कपड़े सिलवाए, कापी-किताब की व्यवस्था के साथ स्कूल की शिक्षा के लिए प्रेरित किया। फिर स्कूल में प्रवेश दिलवाया। बात सब हो गयी। वे लोग बहुत समझाने के बाद समझ गये, लेकिन पुन: एक सप्ताह बाद देखा तो बच्चे भीख मांगते हुए मिले। मैं थोड़ी देर के लिए भौचक हो गया। फिर उनके माता-पिता के पास गया। उनको बताने लगा, आप लोग बच्चों की जिंदगी के साथ क्यों खिलवाड़ कर रहे हैं। उन्होंने जो कहा, उसे सुनकर मैं अवाक रह गया।
उनका कहना था, “भाई साहब, जीवन हम बर्बाद नहीं कर रहे। वह तो स्कूल वाले बर्बाद कर देंगे। ये बताइए कि स्कूल में पढ़ने के बाद क्या कोई गारंटी है कि इन्हें कोई नौकरी मिल जाएगी? यदि नौकरी नहीं मिलेगी तो ये क्या करेंगे। पढ़ने के बाद तो ये भिक्षावृत्ति भी नहीं कर सकते। इनके लिए फिर इस परिस्थिति में क्या कर सकते हैं। अभी तो यह बाल्यावस्था से ही हम भिक्षावृत्ति के लिए ट्रेंड करते हैं तो हर दिन ये लोग चार सौ से पांच सौ तक घर लेकर शाम तक आ जाते हैं। धीरे-धीरे ये एक हजार प्रतिदिन कमाने की क्षमता विकसित कर लेंगे। भिक्षावृत्ति भी एक कला है, जिसे सीखने की जरूरत है।”
उनकी बातों को सुनकर अवाक था। उनको कानून का हवाला भी दिया कि भिक्षावृत्ति करवाना कानूनन जूर्म है, लेकिन उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ा। फिर मेरे समझ में आया, यह कानून वैसे ही है, जैसे दहेज प्रथा के खिलाफ बनाया गया कानून है। उससे दहेज प्रथा आज तक रूक नहीं पायी। हां, वह कानून सिर्फ लोगों को एक हथियार जरूर मिल गया। लड़की पक्ष को एक सहुलियत जरूर दे गया, जब कोई भी, किसी भी तरह का विवाद हो तो उस कानून का सहारा ले लो। भले ही बात कोई दूसरी हो, लेकिन देहज उत्पीड़न का कानून लागू हो जाता है। सबका लब्बोलुआब यह है कि कानून के माध्यम से दहेज प्रथा दूर नहीं की जा सकती। वैसे ही कानून बनाकर बालश्रम को दूर नहीं किया जा सकता है।
यह बात भले भिक्षावृत्ति की हो, लेकिन बालश्रम पर भी यही बात लागू होती है। ईंट-भट्टों पर भी काम करने वाले बाल श्रमिकों के मां-बाप को चाहे जो कानून का भय दिखा दें, लेकिन वे इसको मानने वाले नहीं हैं। हां, इतना जरूर है कि भट्टा मालिक इससे भयभीत होकर अपने यहां काम ही न लें, लेकिन जब वह काम नहीं लेगा तो ऐसे मां-बाप कुछ न मिलने की स्थिति में भिक्षावृत्ति ही करवाएगा। वह किसी दुकान पर अपने बच्चों को काम करने के लिए प्रेरित करेगा। हमारी समझ से इसका एक मात्र तरिका है, इसके लिए कोई विवेकानंद का होना। जो समझा सके। उसके मां-बाप को पढ़ाई का लाभ बता सके और उसे समझाने सफलता प्राप्त कर सके।
ऐसा भी मैंने खुद अनुभव किया है। झारखंड के चार मजदूर अपने बच्चों के साथ जब प्रयागराज के यमुनापार में एक भट्टे पर काम करने आये थे तो उन्हें एक सप्ताह तक दो-दो घंटे तक बिना कानून की बात बताये, पढ़ाई की समझाइश दी गयी। इसके साथ ही उन्हें विधिवत बताया गया कि पढ़ने के बाद यदि बच्चों को नौकरी भी नहीं मिली, तब भी वे बिना पढ़े लोगों की अपेक्षा किसी भी काम में बेहतर प्रदर्शन करने में सक्षम होंगे। आने वाले जमाने में बिना पढ़े लोगों से लोग मजदूरी भी नहीं करवाएंगे। इस तरह की समझाइश चार लोगों की टीम ने बारी-बारी से दिया और आज उनके बच्चे स्नातक कर चुके हैं।
अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम निषेध दिवस की औपचारिकता तभी सार्थक होगी, जब हम बच्चों के अभिभावक को कानून नहीं, शिक्षित समाज के फायदे बताने में सफल हों। उनको भय नहीं, उनको इसके फायदे बता सकें। इसके लिए वे राजी हो जायं। वे इसके महत्व को अच्छी तरह समझ लें। यह भी सच है कि किसी शिक्षित की अपेक्षा, अशिक्षित को समझाना आसान होता है, लेकिन इसके लिए समाज को दृढ़ संकल्पित होना पड़ेगा। बालश्रम की तमाम बुराइयों को बताकर उसके प्रति उनके मन में घृणा पैदा करना होगा, जिससे वे जागरूक हो सकें। तभी हम जड़ से इसे समाप्त करने के बारे में सोच सकते हैं।
कानून वैसे ही है, जैसे मलेरिया की दवा से मलेरिया रोग तो ठीक हो सकता है, लेकिन मलेरिया हो ही नहीं, इसके लिए हमें मच्छरों को जड़ से खत्म करना चाहिए। मच्छर जनित समाज में फिर किसी कानून की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इसके हमें जागरूक करने पर बल देना चाहिए। यह रास्ता भले कठिन है लेकिन बालश्रम या समाज की किसी भी बुराई को दूर करने का यही सबसे अच्छा तरीका हो सकता है।
जहां तक सरकार के प्रयास का सवाल है, इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि पहले एनएलसीपी चलती थी, जिसके तहत बालश्रमिकों के लिए अलग से विद्यालय चलाए जाते थे। वह श्रम विभाग के अंतर्गत चलते थे। सरकार उसे बंद कर दिया। साथ ही जो चलते थे, उनके पैसे का भी भुगतान नहीं किया गया। उन्हें इस संबंध में जानकारी भी नहीं मुहैया कराई गयी। ऐसे में सरकार की मंशा समझा जा सकता है। इसका मतलब यह मान लिया जाय कि देश में बाल श्रमिक बच्चे ही नहीं है। इसका उदाहरण तो आप लोगों को आज भी होटलों, ढाबों पर देखने को मिल जाएंगे, लेकिन सरकारी तंत्र को यह नहीं दिखता, क्योंकि उन्हें अपना कोटा पूरा करना है। उनको समाज की परेशानियों से क्या लेना-देना।
हमें तो कल प्रयागराज में ईंटभट्ठे पर काम कर रही मां के बच्चे की मौत पर सरकार के तफ्तीश का इंतजार है, जो अपनी मां को 45 डिग्री तापमान में पानी देने जा रहा था। उसके सिर पर ईंट गिरा और वह भगवान की शरण में चला गया। आखिर उस बच्चे का क्या दोष था। उसमें सिस्टम को इतना तो देखना चाहिए कि यदि कोई महिला या पुरूष को काम पर लगाया गया है तो उसको पानी की व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन असहिष्णु समाज में सहिष्णुता की कल्पना करना बेमानी होगी। सरकार की तफ्तीश भी होगी, कुछ दिन अखबारों की सुर्खियां भी बनेंगी, लेकिन सब कुछ समय के साथ सुनसान जगह पर दफन हो जाएगा। यहां रह जाएगी सिर्फ अपने बच्चे के लिए तपड़ने को मजबूर एक मां। उसकी जिंदगी तपड़ते हुए ही बितने को मजबूर होगी।
( लेखक स्वयं एक समाज सेवक हैं। )