गौतम चक्रवर्ती
सभी भारतीयों के लिए यह बड़ी खुशखबरी वाली बात है कि अभी पिछले ही दिनों 15 अक्टूबर दिन शनिवार वर्ष 2022 को कानून मंत्रियों के दो दिवसीय सम्मेलन का आयोजन गुजरात के एकता नगर में कानून और न्याय मंत्रालय की मेजबानी में किया गया था।
इस सम्मेलन में बोलते हुये देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि हमारे यहाँ न्याय में होने वाली देरी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। हमारे देश मे करोड़ों मुकदमों के लंबित रहने से बड़ी संख्या में जो लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं जिससे उनकी लोकतंत्र के प्रति विश्वास और आस्था डगमगाने के साथ ही उनके दिलों दिमाग़ में न्यायपालिका के प्रति घोर निराशा की भावना का भी पैदा होना स्वाभाविक सी बात है।
एक मोटे अनुमान के अनुसार देश की अदालतों में सात करोड़ से अधिक मुकदमें लंबित हैं। इनमें से करीब 87 प्रतिशत तक के मुकदमे देश की निचली अदालतों में लंबित हैं तो वहीं लगभग 12 प्रतिशत तक के मुकदमे राज्यों के उच्च न्यायालयों में लंबित चल रहे हैं और देश की सर्वोच्च अदालत में एक प्रतिशत मुकदमे लंबित हैं।
देश वासियों के लिये यह खुशी की बात ही कही जायेगी कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने इस सम्मेलन में इस बात को लेकर जो चिंता व्यक्त की है इससे यह लगने लगा है कि इस बार मोदी जी के रहते इस समस्या का हल अवश्य निकाल लिया जायेगा।
नहीं तो अब तक जहां देश के नेताओं के भाषणों में कही जाने वाली बातों को देश में कितने गंभीरता से अमल में लाया जाता है यह देखने वालीं बात हैं क्योंकि इससे पहले भी न जाने कितनी बार कितने ही जिम्मेदारों द्वारा यह बात कही जा चुकी है? वास्तव में यह बात पिछले लगभग दो-तीन दशकों से ऐसे अनेकों अवसरों पर कई बार कानून मंत्री से लेकर न्यायाधीशों और उस समय सत्तासीन रहे प्रधानमंत्री तक जैसे जिम्मेदारों की ओर से कही गई है, लेकिन इसे लेकर किसी के द्वारा कभी गंभीर प्रयास ही नहीं किये गये जिसके कारण ऐसी बातें अभी तक अतिश्योक्ति वालीं ही बात साबित हुईं है।
हमे इस परिपेक्ष्य में यह कहना पड़ता है कि किसी समस्या की चर्चा करते रहने का तभी कोई औचित्य है, जब उसका समाधान भी निकाला जाए। दुर्भाग्य से आज से पहलें तक देश में सत्तासीन रहें जिम्मेदारों द्वारा इस मामले पर समुचित प्रयास ही नहीं किया गया है, और वह भी तब जब न्याय में देरी के कारणों से हम सभी देश वासी अच्छी तरह परिचित हैं, हाँ जबकि न्याय में देरी के कारणों का निवारण करने के लिए समय-समय पर कदम भी उठाए जरूर गये हैं लेकिन ऐसी बातें ऊंट के मुहँ में जीरे वालीं बातेँ ही साबित हुईं है।
अक्सर यह देखने में आता है कि जब भी न्यायालयों में लंबित चल रहे मुकदमों की चर्चा होती है तब -तब जजों की कमी का भी रोना रोया जाता है लेकिन कर्मचारियों की कमी तो बैंकों से लेकर रेलवे, सरकारी दफ्तरों के अलावा अन्य जगहों पर भी हैं, लेकिन काम तो सभी जगहों पर होते ही हैं कोई भी काम कभी नहीं रुकता है तो ऐसे मे यह प्रश्न उठता है कि आखिरकार जजों के कमी का रोना क्यों? दरअसल आदमी मे कार्य करने और उसे जल्द निपटाने की इच्छा शक्ति चाहिये। दरअसल यह एक बहाना है मुकदमों को लटकाए रखने का कभी वकील नदारद तो कभी जज लंबे अवकाश पर आदि। निचली अदालतों में तारीख जज, मजिस्ट्रेट नहीं, पेशकार दिया करते हैं, जहां भ्रष्टाचार पनपता है।
न्याय में देरी होने के कारणों में से एक जो न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी हुई एक मुख्य समस्या पारदर्शिता का अभाव भी है। देश के न्यायालयों में नियुक्ति व स्थानांतरण में पारदर्शिता को लेकर समय- समय पर प्रश्न भी उठते रहे हैं।
दूसरी ओर वर्तमान में कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्थानांतरण और नियुक्तियां किया जाता है। कॉलेजियम प्रणाली में उच्चतम न्यायालय के संबंध में निर्णय के लिए मुख्य न्यायाधीश सहित 5 वरिष्ठतम न्यायाधीश होते हैं। वहीं उच्च न्यायालय के संबंध में इनकी संख्या 3 होती है। इस प्रणाली की समस्त क्रियाविधि जटिल एवं अपारदर्शी होने के कारण सामान्य नागरिक की समझ से परे होती है। ऐसी स्थिति में इस प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए संसद द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के माध्यम से असफल प्रयास किया जा चुका है। भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है जिसमें जानने का अधिकार भी शामिल है। इसको ध्यान में रखते हुए कोई भी ऐसी प्रणाली जो अपारदर्शी हो, उसको नागरिकों के अधिकारों की पूर्ति के लिए पारदर्शी बनाया जाना चाहिए।
नहीं तो उसका अपेक्षित लाभ देश और देशवासियों को आज तक नहीं मिल पाया है और नहीं मिल पायेगा।