मृत्युंजय दीक्षित
मोरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोय जैसे भजनों से कृष्णभक्तों को सराबोर कर देने वाली महान कवयित्री व कृष्णभक्त मीराबाई का जन्म राजस्थान में संवत् 1504 अर्थात 23 मार्च 1498 को को जोधपुर के कुरकी गांव में राव रतनसिंह के घर हुआ था। हिंदी में रसपूर्ण भजनों को जन्म देने का श्रेय मीरा को ही है।
मीरा बचपन से ही कृष्ण की दीवानी हो गयी थीं। जब मीरा तीन वर्ष की थीं तब उनके पिता का और दस वर्ष का होने पर माता का देहावसान हो गया। यह उनके जीवन के लिए बहुत बड़ा सदमा था। कहा जाता है कि जब वे बहुत छोटी सी थीं तब उन्होनें एक विवाह समारोह के दौरान अपनी मां से प्रश्न किया कि मेरा पति कौन है तब उनकी मां ने कृष्ण की प्रतिमा के सामने इशारा करके कहा कि यही तुम्हारे पति हैे। मीरा ने इसे ही सच मानकर श्रीकृष्ण को अपने मन मंदिर में बैठा लिया। माता- पिता केे देहावसान के बाद मीरा अपने दादा राव दूदाजी के पास रहने लगी थीं। कुछ समय बाद उनके दादा जी का स्वर्गवास हो गया। अब राव वीरामदेव गदी पर बैठे।
उन्होनें मीरा का विवाह चित्तौड़ के प्रतापी राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ कर दिया। वह ससुराल मे भी अपने इष्टदेव कृष्ण की मूर्ति ले जाना नहीं भूली। मीरा व भेाजराज का वैवाहिक जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था। लेकिन तभी उनके जीवन में एक वज्रपात होना शेष था। दस वर्ष में ही मीरा के पति चल बसे। पति के स्वर्गवास के बाद मीरा पूरी तरह से कृष्णभक्ति में लीन हो गयीं।
मीरा की कृष्णभक्ति की चर्चा सर्वत्र फैल चुकी थी। मीरा कृष्ण मंदिरों में भक्तों के सामने सुधबुध खोकर नाचने लगती थीं। उनकी इस प्रकार की भक्ति से ससुराल वाले नाराज रहने लगे। कई बार उन्होनें मीरा को विष देकर जान से मारने की कोशिश की। लेकिन वे टस से मस नहीं हुई और अंततः परिवार के सदस्यों से व्यथित होकर वृंदावन – मथुरा चली गयीं। वह जहां भी जाती थीं उन्हें लोगों का प्यार सम्मान मिलता था ।
मीरा की रचनाओं को चार ग्रंथों नरसी का माजरा, गीतगोविंद की टीका, राग गोविंद के पद के अलावा मीराबाई की पदावली, राग सोरठा नामक ग्रंथों में संचयित किया गया है। मीरा की भक्ति में माधुर्य भाव काफी है। मीरा ने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में की है। मीरा की भक्ति व लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ती जा रही थी लेकिन साथ ही उनके चित्तौड़ पर विपत्तियों का ढेर लग गया।
राणा के हाथ से राजपाट निकल चुका था। एक युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी। यह देखकर मेवाड़ के लोग उन्हें वापस लाने के लिये द्वारका गये। मीरा आना तो नहीं चाहतीं थीं लेकिन जनता का अनुरोध वे टाल नहीं सकीं। वे विदा लेने के लिए रणछोर मंदिर गयीं लेकिन भक्ति में इतनी तल्लीन हो गयीं कि वहीं उनका शरीर छूट गया। इस प्रकार 1573 ई में द्वारका में ही कृष्ण की दीवानी मीरा ने अपनी जीवनलीला को विराम दिया।