राहुल कुमार गुप्ता
धर्म/मजहब/पंथ की टेबलेट में स्मैक से ज्यादा नशा होता है। ये टेबलेट दुनिया के चाहे किसी भी धर्म/मजहब/पंथ से बनी क्यूं ना हों। ऐसी टेबलेट मात्र लेने से वो हमारे अंदर बहुत सी कमियों, गलतफहमियों, अहम और वहम को एक नया जीवन व नया आकार देती है।
साथ ही जब इसे स्वार्थ, राजनीति और शासन के लिए प्रयोग में लाया जाता है, तब ये टेबलेट हमको कट्टरता की लाइन में खड़ा करती है। जो तात्कालिक स्वार्थ की पूर्ति तो कर सकती है किंतु ये हमको ईश्वर से दूर भी ले जाती है। कट्टरता से हो सकता है हम अपना या अपने धर्म/मजहब/पंथ का भौतिक वजूद बचा लें कुछ काल के लिए किंतु आध्यात्मिक वजूद खत्म हो जाता है। ऐसी स्थिति में ये धर्म/मजहब/पंथ बिलकुल ऐसे ही प्रतीत होते हैं जैसे बिन प्राण के देह।
ऐसी टेबलेट का निर्माण कुछ पाखंडी जाने या अंजाने में कर देते है। और समाज के भोले भाले लोग उन्हीं बातों को धर्म मान अपने जीवन में ढालने लगते हैं। धार्मिक ग्रंथों से कुछ जिक्रों को निकाल उनका अपने मतलब के अनुसार विश्लेषण कर वो लक्षित लोगों तक पहुंचाते हैं। जिससे वो लक्षित लोगों में कट्टरता वा अतिकट्टरता का बीजारोपण कर अपना हित साध सकें।
अतिकट्टरता से हम मानवता/इंसानियत खोकर आतंक का पर्याय बन उस ईश्वर की बनाई सबसे बेहतरीन रचना को ही अपना शिकार बनाना शुरू करते हैं। जिससे राष्ट्र में, समाज में और विश्व में अशांति फैलने लगती है। ऐसे ही आचरणों से स्वर्ग/जन्नत से प्यारी यह धरा नर्क/दोजख के रूप में दिखने लगती है।
यदि धार्मिक ग्रंथों की किसी भी एक बात की तार्किक रूप से विस्तृत और सही जानकारी हो जाए या फिर कोई ऐसी छोटी सी ही बात जो हमारा हृदय परिवर्तन कर मानवता के मार्ग से जोड़ दे , विश्व कल्याण के लिए जोड़ दे तब इसी धर्म/मजहब/ पंथ की वो सही बातें नशे की जगह हमारी बुरी आदतों का नाश करने वाली बन जाती हैं। और तो और तब यही धर्म/मजहब/पंथ मानवता और सहृदयता के लिए सुपर बूस्टर का काम करती हैं। तब यही हमको मनुष्य से देवता/फरिश्ते की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है।
और हम उस परमात्मा को खुद के करीब पाते हैं। उस परम ऊर्जा का अहसास ही हमारे परम आनंद का स्रोत बन जाता है। हम संकीर्णता से दूर विस्तीर्णता की दुनिया में कदम रखते हैं। जिस प्रकार यह ब्रम्हांड विस्तीर्ण है असीम है उसी प्रकार से हमारा मन भी उसी रंग में रंगने लगता है।
ये विस्तीर्णता वैसी ही हो जाती है जैसे सूरज, चांद, हवा, पानी, अवनि आकाश, आग, पेड़ पौधे। ईश्वर के ये तत्व जिस प्रकार सबके प्रति समान भाव रखते हैं उसी प्रकार तत्वज्ञानी और आत्मज्ञानी मनुष्य भी सबके प्रति सम भाव रखते हैं। विवेकशील और ईश्वर की इस सबसे बेहतरीन रचना मनुष्य को खुद सोचना चाहिए की वो अपने आपको कहां पर पाना चाहता है? ईश्वर के करीब, शांति अमन के करीब, प्रेम के करीब! या नफरत, ईर्ष्या और आतंक के करीब! जो ईश्वरवादी हैं उनके लिए तो यह चिंतन का विषय जरूर होना चाहिए।
अनीश्वरवाद(जैन धर्म व बौद्ध धर्म) में तो मात्र मानवता के मार्ग पर चलने पर जोर दिया गया है, यहां ईश्वर नामक किसी सत्ता को स्वीकारा नहीं गया। यहां ईश्वर का भय या लोभ दिखाकर कोई बात नहीं की गई है। यहां जन्नत और दोजख का भी कोई लोभ, मोह और भय नहीं है।
यहां भी मात्र मानवता को ही सार बताया गया है। धर्म के मार्ग कोई भी हों वो सृष्टि में मानवता को ही प्रश्रय देते हैं।। सभी धर्म/मजहब/पंथों का सार ही मानवता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, धर्मग्रंथ ये सब मानवता के क्रिएशन और कंजर्वेशन के लिए हैं। ना की मानव को मानव का दुश्मन बनाने के लिए।