गौतम चक्रवर्ती
भारत ने चाहे वह विज्ञान के क्षेत्र में हो या किसी अन्य क्षेत्र में हो हम उन्नति के चरम शिखर की ओर दूत गति से अग्रसर हैं। हमारे देश के लोगों के रहन-सहन के स्तर से लेकर पहनने- ओढ़ने से लेकर प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति की है लेकिन आज जब हम हमारे देश के वन्य क्षेत्र से लेकर ग्रामीणों अंचलो तक के दूर-दराज के विषम परिस्थितियों में रहने वाले आदिवासियों की बात करें तो निश्चित रूप से हमे कहना पड़ता है कि हमारे एसे देशवासियों को उन्नति के अमृत पान से अभी भी अछूते हैं समाज के हासिये पर जीवन यापन करने के वाले लोग जो प्रतिपल जीवन यापन करने के लिये कठिन संघर्ष आज भी कर रहे हैं।
यहां यह एक अलग मुद्दा है कि आदिवासी लोगों का रहन-सहन खान-पान से लेकर बोल-चाल तक का तरीका समाज जनसाधारण से पृथक होता है। हम आप मे से बहुत से लोग यह कहते हुये मिल जाएंगे कि आदिवासीयों को जब इस तरह के जीवन जीने में आनन्द आता है तो उन्हें कौन और कैसे बदल सकता है? यह बात तो सच हो सकता है लेकिन हमारे पढ़े-लिखे समाज के लोग कम से कम उनसे उनकी छोटी-छोटी खुशियां और उनका घर-आंगन तो उनसे न छीने। यह आदिवासी लोगों के कारण ही हमारे पर्यावरण से लेकर वन्य प्राणियों तक सुरक्षित और आबाद हैं।
ऐसे में हमारा यह परम कर्तव्य बनता है कि हम सबसे पहले अपनी चिंता छोड़ कर उन्हें सुरक्षित एवं उनके विकास के लिये काम करते हुये उन्हें नही उजाड़े। हमारे समाज के यह लोग जीवन जीने के लिये नियुन्तम संसाधनों का अपने जीवन निर्वाह करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर होकर प्रकृति के गोद मे स्वछंद रहते हैं। हम शायद उनके लिए बहुत कुछ नही कर पायें लेकिन कम से कम ऐसे लोग को उनके वन क्षेत्र में स्थित उनके घर-आंगन को तो उन लोगों न छीने।