अरविंद कुमार “साहू”
उत्तर प्रदेश के एक बड़े हिस्से व देश विदेश में रह रही अनेक उत्तर भारतीय ग्रामीण महिलाएँ
हरछठ का त्योहार बड़ी श्रद्धा से मनाती हैं। भादों माह में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से दो दिन पूर्व मनाया जाने वाला यह पर्व पुत्रों (और अब सभी सन्तानों) की प्रगति व सुरक्षा को समर्पित होता है। इस पूजा में अनेक प्रकार के अनाज, फल, दही व अन्य ऐसी प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग होता है। जिन्हें शहरी सभ्यता द्वारा भुला दिये जाने की आशंका बनी रहती है।
दिनभर निराहार व्रत रहने के बाद शाम को ऐसे आहार (प्राय: लाल चावल, फल व दही आदि) का उपयोग होता है, जिनकी खेती नही होती या वह मुफ्त मिल सकने वाली जंगली फसल मानी जाती हैं। इस पूजा के लिये एक कृत्रिम सगरा (शुद्ध पानी का तालाब) निर्मित किया जाता है और उसके किनारे कुश व ढ़ाक के पौधों को लगाया जाता है। वहीं परम्परागत तरीके से पूजा करके मातायें अपनी आराध्य ‘छठ माई’ से सन्तानों के लिये सुख, समृद्धि, सुविधा व सुरक्षा की कामना करती हैं।
यह व्रत अपेक्षाकृत कठिन व झंझटी होता है। शहरी सभ्यता में तमाम प्रकार के प्रचलन से बाहर वाले अनाज, फल व लाल चावल आदि जुटाना बड़ी समस्या होती है। फिर भी इस कर्मकांड की तैयारी बड़े उत्साह, जुगाड़ व एक दूसरे के सहयोग से पूर्ण कर ली जाती है।
वास्तव में यह भी समाज को मूल प्रकृति से जोड़े रखने का पर्व है। इसके तरीको को ध्यान से देखें तो ये विलुप्त प्राय अनाजो, फलों, सब्जियो की पहचान, उपयोग व जल संरक्षण सिखाने वाला अद्भुत गँवई संस्कार है।
इस प्रक्रिया को करने से आहार विज्ञान का ऐसा विकास होता है कि किसी महामारी, युद्ध त्रासदी, अकाल अथवा अन्य प्राकृतिक आपदा आदि में आबादी क्षेत्र से भागकर जंगल या निर्जन स्थान में शरण लेकर भी भूखे प्यासे रहने की नौबत नही आयेगी। क्योंकि खाने योग्य जंगली अनाजों, फलों व जल स्रोत बचाने का अद्भुत ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयमेव विकसित होता जाता है।
भारत जैसे विशाल देश में ऐसे हजारों पर्व अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग तरीके से आज भी बखुबी मनाये जाते है। इस तरह के पर्वों और पूजा पद्धतियों की महत्ता के विषय पर और भी बहुत सी बातें हैं, जिन्हे फिर कभी विस्तार से कहा जायेगा। फिलहाल भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र इस तरह समझें कि प्रकृति ही ईश्वर है, प्रकृति पूजा मानव विकास की आधार है और प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का संरक्षण ही मानव जीवन को अनंत काल तक बचा सकता है।
इसलिये अपनी भारतीय संस्कृति, भाषाओं, ग्रंथों, परम्पराओं और कथाओं के गूढ़ रहस्यों को समझने का प्रयास करें। उन पर गर्व करें। अपनी आने वाली पीढियों को भी बतायें व समझायें। उन्हें मजाक या कुतर्की बहस का विषय न बनायें। – aksahu2001@gmail,com