आशा शैली
आग केवल जलाती नहीं रिश्ते जोड़ती है। शीत ऋतु की आग में जीवन होता, भाईचारा होता । शीत की गहराई मशीन नहीं प्रकृति बताती । सेंटीग्रेड नहीं था पर ठिठुरते पशु पक्षी ताप बता देते । बूढे बरगद.को सब याद रहता। किसी का जन्म, किसी की मृत्यु तय करती , किस वर्ष शीत लहरी कितने दिन चली ।
शीत लहर आती लेकिन जिंदगी चलती रहती उसी शान से ।यह शान थी आग । कौआ बुलाने के समय ही अलाव जल जाते । धुएँ की चादर गाँव पर तन जाती । घने कुहरे.से लड़ता धुआँ बस्ती का आकाश दीप था ।
ये केवल अलाव नहीं थे गाँव के सभागार थे प्रेम और भाईचारा थे । वहाँ जाति धर्म नहीं था । कोई बड़ा छोटा नहीं।किसी कै अलाव पर कोई बैठता । आग सबको समा लेती । राह चलते राहगीर भी दो घड़ी आग ताप लेते और इस बहाने हाल खबर बता देते । गाँव के समाचार पत्र थे अलाव । धूप निकलने तक जवार नहीं देश की खबरें मिल जाती । अलाव यूँ ही नहीं जलते थे उसकी भी प्रक्रिया थी । गाव के इर्दगिर्द फैले झाड़झंखाड , ज्वार बाजरे की खेत में पड़ी गाँठे इस बहाने साफ हो जाते।
आग ही नहीं पूरी प्रकृति शीत से लड़ने के लिए मनुष्य के साथ खड़ी हो जाती । कुएँ का जल शीतलता का स्वभाव त्याग उष्ण हो जाता । नीम और बरगद स्वयं भीगते ठिठुरते टपटप आँसू टपकाते पर शीत की हिम्मत नहीं थी कि उनकी छाया को बेध कर नीचे बैठे चेतन प्राणियों को पीड़ित कर सके ।
कौन कहता है प्रकृति जड है उन्हें सचेतन का पोषण आता है । यह चेतना किसने दी । छाया से निर्धन , बेचारा बबूल जब कोई सहायता न कर पाता तो अपनी हरी डाल देकर आत्माहुति कर रक्षक बन जाता । चिकनी पत्तियाँ और हरी डालें सूखी लकड़ियों से भी तेज जलती ।
अलाव केवल अलाव नहीं दरवाजे की शोभा थे सभागार थे, ड्राइंग रूम थे, हैसियत थे ।जिसके अलाव पर जितनी भीड होती वह उतना ही प्रतिष्ठित । हर गांव मे कुछ अलाव मशहूर होते। ये अलाव गाँव की जिंदगी थे । हर टोले में एक बड़ा अलाव होता ,छोटे तो घर घर होते ,।
महिलाओं का विमर्श अलग था ।उपले पर आग लाने के बहाने बूढ़ी औरतें घरों का हाल ले जाती .चूल्हे की आग भोजन बनाने मे रुचि पैदा करती ।
अकेले हीटर जलाये अखबार से शीत को नापते लोग अलाव का रस नहीं समझ सकते ।आग गाँव का राग द्वेष प्रेम घृणा दुख सुख मित्रता शत्रुता सबका निर्णय करती ।कौन किस अलाव पर बैठता है यह आग तय करती । अलाव साहित्य के नवरस अलाव में थे ।क्या हुआ कपड़े नहीं हैं अलाव तो है और अलाव है तो युगों पुरानी कहानियां हैं परियों की राजाओं की और अपने अतीत की ।हर गाँव के कुछ दिवंगत लोकनायक होते हैं ।उन्हें शास्त्र की मर्यादा से नहीं समझ सकते ।वे बहुत बड़े चोर, मवाली, डकैत पहलवान कुछ भी हो सकते हैं पर इन सबसे बढ़कर वे मनुष्य होते थे ।
तब शीत आज की तरह मृत्यु की सूचक नहीं जीवन की सूचक थी । भोर होते ही कुट्टी की खुटखुट और जँतसार के गीत गाँव में गूँजते ।पशु भीतर से बाहर आ जाते । मंनुष्य अपने से अधिक पशुओं की चिंता करते ।लगेन है तो लेरुओ को पालना ।जाड़े में पशुओं की सार सँभाल ।
आदमी शीत मे प्रकृति के निकट हो जाता ।
कितनी दयालु है प्रकृति जीवन की रक्षा के लिए स्वभाव बदलना छोटी बात नहीं और एक हम हैं जिसकी जेब में आग कैद है हाथ में आग की बटन है पर यह आग केवल अपने लिए । हीटर सामने रखे बैठे है । यह मशीनी आग एकल होती है ।
मनुष्य आज आग लगा रहा है जीवन में, समाज मे, भाईचारे में । मशीनों के बीच रहते रहते हम मशीन बन गये हैं ।जेब मे आग है तो जलायेगी ही । अब तो सुनता हूँ गाँव मे भी अलाव नहीं जलते । वहाँ भी आग को कैद कर लिया गया है ।
शीत तब प्रेम की ऋतु थी यह प्रेम आग बाँटती थी । मेरे गाँव के बबूल अब शीत मे आत्माहुति न देकर काँटे बाँटते होंगे,बूढा बरगद शीत में काँपता होगा और कुएँ सूख गये होंगे ।प्रकृतिसे दूर होता मनुष्य मशीनों के बीच रहकर अब जीवन नहीं अखबारों में मृत्यु के आँकड़े गिन रहा है ।