ग़ज़ल/ आशु मिश्र
सुर आपके बिल्कुल मेरी लय से नहीं मिलते
बस इसलिये हम मिलने के जैसे नहीं मिलते
अलगाव का दुख दायमी दुख है तो मेरी जान
लेकिन ये मज़े दूसरी शय से नहीं मिलते
होंठों पे रखा रह गया इनकार-ए-मुलाक़ात
जब उसने कहा देखूँगी कैसे नहीं मिलते
अव्वल तो मुहब्बत में मेरा जी नहीं लगता
और दूसरा इस काम के पैसे नहीं मिलते
काम आती है बीते हुए लम्हों की सिफ़ारिश
आँखों को नए अश्क अब ऐसे नहीं मिलते
रहता है मेरे साथ ग़म-ए-कार-ए-ज़माना
जब तक कि क़दम मौजा-ए-मय से नहीं मिलते