मनुष्य का अनुभव ही उसके रास्ते का प्रकार होता है।
“………..स यियासुः शिवेच्छया। भुक्तिमुक्तिप्रसिद्ध्यर्थ नीयते सद्गुरुं प्रति।।”
(संदर्भ -‘मालिनी विजय’)
” शिष्यप्रज्ञैव बोधस्य कारणं गुरुवाक्यतः ।”
अर्थात- गुरुवाक्य से जो बोध होता है, उसमें शिष्य की प्रज्ञा ही कारण है। अतएव, गुरु और शास्त्र से उत्पन्न ज्ञान में भी स्वपरामर्श ही प्रधान है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
( सन्दर्भ – योगवशिष्ठ के निर्वाण प्रकरण, १ / १२८ /१६३ ) ,
” सद्गुरु की प्राप्ति भगवान् के अनुग्रह के बिना नहीं होती। जहाॅं तीव्र शक्तिपात होता है, वहाॅं पूर्ण ज्ञान सम्पन्न ऐसे गुरु मिल जाते हैं, जिनकी कृपा मात्र से स्वात्मविज्ञान का पूर्ण रूप से उदय हो जाता है । फिर, बार-बार गुरु करने की आवश्यकता नहीं रहती।”
” गुरोः कृपैव केवलम् “
श्रीगुरु का अनुग्रह,
- गुरु-पूर्णिमा की शुभकामनाएँ