अंशुमाली रस्तोगी


हालांकि मित्र ने मुझसे भी कई दफा अपने कारोबार में आ जाने का निमंत्रण दिया लेकिन मैंने यह कहकर टाल दिया कि मैं टमाटर नहीं बेचूंगा। व्यंग्यकार हूं उम्रभर व्यंग्य ही लिखूंगा।
मित्र को मेरा व्यंग्यकार होना पसंद नहीं आता। वो छूटते ही ताना मारता है- व्यंग्य लिखकर जितना कमाते हो न इससे ज्यादा की तो मैं टमाटर बेच देता हूं मिनट भर में।
इधर जब से टमाटर के दाम ने आसमान छुआ है मित्र के धंधे में और भी निखार आ गया है। सुना है, अब तो वो ऑनलाइन भी टमाटर बेचने लगा है।
अभी तक मंदी और चालान का भय ही जनता को सता रहा था, अब टमाटर की बढ़ी कीमतें उसे रुला रही हैं। लेकिन मेरा मित्र खुश है। वो चांदी काट रहा है।
जिन्हें टमाटर खाना ही खाना है, वे इसे हर कीमत पर खरीदने को तैयार हैं। किंतु मुझ जैसे मध्यम वर्गीय आदमी इतनी महंगी टमाटर नहीं खरीद सकता। अतः मन मसोस कर रह जाता हूं।
बीवी को एक दिन टमाटर न मिले तो वो पहाड़ सिर पर उठा लेती है। कितनी ही प्रकार के ताने मुझे मार देती है। मेरे व्यंग्यकार होने पर जाने क्या-क्या बोल देती है। मेरी मेरे टमाटर बेचने वाले मित्र से ऊलजलूल बराबरी करने लगती है। यानी- मेरी बेइज्जती का कोई अवसर वो हाथ से जाने नहीं देती।
अब तो आदत-सी पड़ गई है ये सब सुनने की। सुनने के अतिरिक्त कुछ और मैं कर भी तो नहीं सकता। आखिर बीवी है मेरी। कुछ अंट-संट बोल दिया तो लेने के देने। इसीलिए चुप रहने में ही खुद की भलाई समझता हूं।
लेकिन कभी-कभी मुझे मित्र और बीवी के ताने सही भी लगते हैं। अगर आज मैं व्यंग्य न लिख रहा होता तो निश्चित टमाटर ही बेच रहा होता। मेरा भी मेरे मित्र जैसा बड़ा करोबार होता। मेरे कने भी कोठी-गाड़ी होती।
व्यंग्यकार बनकर हासिल ही क्या किया मैंने! इतना छपने के बावजूद अभी मुझे वो पहचान न मिल पाई है, जिसकी दरकार हर लेखक को रहती है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि आप सिर्फ लिखकर ही आरामतलब जिंदगी नहीं जी सकते।
टमाटर बेचने में जो ‘टशन’ है, वो व्यंग्य लिखने में नहीं।
सोच रहा हूं अगर अपने लाइफ-स्टायल को बेहतर बनाना है तो मुझे जिद छोड़कर अपने मित्र की बात मान लेनी चाहिए। व्यंग्य की लाइन छोड़, टमाटर का दामन थाम लेना चाहिए।