अरविन्द कुमार साहू
बादशाह अकबर के जमाने में पीने के पानी की बड़ी किल्लत रहा करती थी। कई गांवों के बीच एकाध कुएं या तालाब हुआ करते थे। मेरे जमींदार नाना ने उन दिनों अपने गांव में एक नया कुआं खुदवाया था, जिसमें काफी लोग पानी भरा करते थे।
सर्दियों के दिनों तक तो सब ठीक रहा, लेकिन गरमी आते ही कुएं का मिजाज कुछ बदल सा गया था। गांव की चौपाल में एक दिन भडकू नामक व्यक्ति ने शिकायत की, “कुएं का पानी दिन में ठंडा नहीं रहता। दोपहर तक कुएं के पानी गरम हो जाता है।”
यह सुनकर सारे लोग चिंतित हो उठे कि इतनी विकट समस्या कहां से आ गई ? बस, बहस शुरू हो गई, कोई इसे दैवी आपदा बताने लगा, तो कोई धरती के अंदर गरमी बढ़ने की जानकारी देने लगा। कुछ ने तो यहां तक कह दिया कि यह कुआं ही उदंड हो गया है, इसे उठाकर किसी के घर में या तहखाने में ठंडी जगह पर बंद करके रख देना चाहिए। सजा से इसका दिमाग ठंडा हो जाएगा, तो खुद ही ठंडा पानी देना शुरू कर देगा। “वाह-वाह, क्या विचार है…?” लोगों ने तालियां पीट डालीं कि यही ठीक रहेगा।
लेकिन इसपर एक नई बहस छिड़ गई कि कुएं को ऐसी जगह उठाकर रखा कैसे जाए? यह तो उस
समस्या से भी बड़ी समस्या खड़ी हो गई थी। आखिर कुआं कोई एक घड़ा भर पानी तो था नहीं कि जहां मर्जी होती, वहां रख देते। _फिर से संसद जैसा घमासान शुरू हो गया। विरोधी लोगों ने मूल समस्या से हटकर पहली सलाह देने वाले पर चौपाल का समय बरबाद करने के लिए कार्यवाही की मांग कर डाली। कुछ लोग इस मांग के भी विरोध में खड़े हो गए। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल निकला। सब अपनी ढपली अपना राग बजाने के चक्कर में पड़े थे। जब कोई किसी एक की बात पर सहमत न दिखा, तो माहौल और गरमा गया।
लोगों ने जूते-चप्पल फेंककर मारना शुरू कर दिया। लोग जान बचाकर भागने लगे।
शिकायत कर्ता की पहल पर अगले दिन फिर ग्रामवासी उसी चौपाल पर इकट्ठा हुए। बड़े बुजुर्गों ने सलाह दी, “कल जैसी बहस करने के बजाय हमें पहले मौके पर जाकर देख लेना चाहिए। शायद कोई बढ़िया हल वहीं सूझ जाए।” “हां, ये ठीक रहेगा।” कल जैसी बहस वास्तव में कोई नहीं चाहता था आखिरकार सभी लोग उस कुएं के पास जा पहुंचे।
समस्या स्थल का बारीकी से निरीक्षण किया गया। कुएं से थोड़ी दूर पूरब और पश्चिम दिशा में नीम का एक-एक पेड़ था। ये काफी बड़े और घने पेड़ थे, जिनकी छाया सूरज की चाल के हिसाब से कुएं पर पड़ती थी। गांव के लोग बुद्धिमान तो थे ही, दिन भर की जांच-पड़ताल के बाद कुछ अनपढ़ इंजीनियर टाइप के लोगों ने जल्द ही समस्या की जड़ पकड़ ली और उसका समाधान भी खोज लिया गया। खोजबीन में पाया गया कि धूप चढ़ने के साथ ही सूरज की गरमी बढ़ने से कुएं का पानी गरम हो जाता है। तब समाधान खोजा गया, “जब धूप चढ़ने लगे, तो कुएं को ठेल-धकेलकर छाया में कर दिया जाए, इससे कुएं का पानी गरम होना बंद हो जाएगा।”
अब यह निश्चित हो गया कि कुएं को धकेलकर छाया में कर दिया जाए। इसके लिए सारे गांव वालों ने श्रमदान का निश्चय किया। अगले दिन सूरज के सिर पर चढ़ते ही लोग इकट्ठे होकर कुएं को छाया में धकेलने का प्रयास करने लगे। पूरब की दिशा से सारे गांव वाले धक्का लगाने में जुट गए। धूप बढ़ती गई, लोग जोर लगाते गए। जोश बढ़ाने वाले नारों से लोग एक-दूसरे के पीछे जुड़ते गए। ताकत बढ़ती गई, जिसने भी सुना कि कुएं को
ठंडा रखने के लिए छाया में खिसकाया जा रहा है, वह भी दौड़ा चला आया। लोग आते गए, कारवां बनता गया और धक्का लगता गया। सैकड़ों लोग, स्त्रियां और बच्चे जुट गए। बड़ी मेहनत लगी। लेकिन कुआं अपनी जगह से न खिसकना था न ही खिसका। दोपहर ढलने लगी, आखिरकार सूरज डूबने को आया। तभी एक बुजुर्ग ने बड़ी प्रसन्नता से घोषणा कर दी, “हम कामयाब हुए। कुआं ठंडी जगह पर आ चुका है।”
सबने आश्चर्य से देखा, अब वहां पश्चिम में ढलते सूरज के कारण पेड़ की भरपूर परछाईं आ चुकी थी। सचमुच कुआं ठंडी जगह पर पहुंच गया था। परख के लिए बालटी से पानी भरकर देखा गया। सचमुच पानी ठंडा हो चुका था। लोगों की खुशियों का ठिकाना न रहा। खूब जश्न मनाया गया।
रात बीती। फिर नई सुबह हुई, तो लोग फिर पानी भरने कुएं पर आने लगे। पानी भरते गए, धूप भी चढ़ती गई। अचानक कोई चिल्लाया, “अरे कुएं का पानी तो फिर गरम हो रहा है। लगता है थोड़ा और खिसकाना पड़ेगा।”
उत्साही लोगों ने कहा, “कोई बात नहीं, हम आज फिर इसे खिसकाकर छाया में कर देंगे।” लोग फिर जुट गए। शाम ढलने से पहले फिर कुएं को ठंडी जगह पर खिसकाकर ही माने। सभी खुश थे।
अगली धूप चढ़ते ही फिर वही समस्या। पर अब गांव वाले निराश नहीं थे। उन्हें तरकीब मिल गई थी। कुएं को उसी प्रकार शाम ढलने से पहले फिर खिसका लिया गया। अजीब बात थी अगले दिन फिर वही समस्या, मानो कुआं रात में अपनी जगह खिसककर लौट आता था। धीरे-धीरे यह रोज की समस्या हो गई, तो लोगों के लिए वही तरीका रोज का समाधान भी बन गया। आखिरकार, एक समिति ही बना दी गई, जिसको इस व्यवस्था का जिम्मा दे दिया गया। वह धूप चढ़ते ही कुएं को धक्का लगाते और शाम ढलने तक जब कुआं ठंडी जगह में पहुंच जाता, तभी मानते।
यह बात जंगल की आग की तरह फैलने लगी। लोग दूर-दूर से यह कारनामा देखने के लिए आने लगे। यह खबर बादशाह अकबर तक भी पहुंच गई। फटाफट राजा बीरबल को मुआयना करने के लिए भेजा गया।
राजा बीरबल ने सारी घटना की जांच की, तो अपना माथा पीट लिया। दरअसल वहां के लोग समझते थे कि कुएं के पूरब की ओर से सूरज निकलने पर नीम के पेड़ की परछाई थोड़ी देर तक ही कुएं पर रह पाती थी दोपहर में सूरज की सीधी किरणों से सतह का पानी गर्म हो जाता था। किंतु जब तक ग्रामीण उसे धक्का लगाकर ठंडी जगह में ले जाते थे सूरज पश्चिम दिशा में पहुंच जाता था और ऐसे में सूरज की सीधी किरणें कुएं में न पड़ने से पानी सचमुच ठंडा हो जाता था और परछाई में पहुंचकर गांव वालों को विश्वास हो जाता था कि उन्होंने कुएं को ठंडी जगह पर खिसका लिया है।
सब कुछ जानकर बादशाह अकबर भी खूब हंसे, “बोले ऐसे मूर्ख गांव वालों को सम्मानित करना तो वाकई बनता है, बीरबल! गांव जाओ, और उस कुएं के चारों तरफ छायादार वृक्ष लगवा दो, ताकि हमेशा कुएं का पानी ठंडा बना रहे।” “जी हुजूर, आज्ञा का पालन किया जाएगा। लेकिन एक मेरी भी इच्छा है कि इस गांव का नाम जो भी है, उसे बदल कर ‘भकुआ’ रख दिया जाए, ताकि यह गाथा युगों तक के लिए अमर रहे।” “भकुआ ?” ये भकुआ क्या होता है ?” बादशाह भी अचकचा उठे। इस शब्द का क्या मतलब है बीरबल ?” “आला दर्जे के बेवकूफ हुजूर।” सारा दरबार ठहाकों से गूंज उठा।
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