व्यंग्य: अंशुमाली रस्तोगी
मुझे हिंदी की ‘चिंता’ है। हिंदी के लिए हर वक़्त फिक्रमंद रहता हूं। बहुत कुछ मतलब बहुत कुछ हिंदी के लिए करना चाहता हूं। हिंदी को उस स्थान पर ले जाना चाहता हूं, जहां न रवि पहुंचे न कवि। हिंदी मेरी रग-रग में बसी है। मैं हिंदी में ही लिखता, बोलता व झगड़ता हूं। हिंदी के बिना मैं अधूरा हूं। हिंदी मेरी जान ही नहीं, जहान भी है।
मैं ऐसा कोई हिंदी दिवस नहीं छोड़ता, जब भाषा पर चिंता जाहिर न करूं। अंग्रेजी आज भी हिंदी के लिए चुनौती है। अंग्रेजी वाले हम हिंदी वालों को कुछ समझते ही नहीं। कभी हिंदी दिवस के आयोजन में भाग लेने साथ नहीं आते। चतुर इतने हैं, जब मौका पड़ता है हिंदी से लाभ उठा लेते हैं। अपनी किताबों के हिंदी अनुवाद करवा कर ठाठ से बेचते हैं। अब तो इन लोगों ने हिंदी के इलाके में भी ‘घुसपैठ’ शुरू कर दी है।
बस यही सब बातें ही तो मुझे हिंदी की चिंता में हर वक़्त घुलाए रहती हैं। हिंदी तो भोली है। वह यह सब नहीं समझती। जिसे देखो अपना दिल दे बैठती है। मुझे हिंदी के दिल की चिंता है। ऐसे-वैसे के पास इसका दिल चला जाए मुझे मंजूर नहीं।
हिंदी दिवस पर हिंदी को याद कर उसकी चिंता में लगना हर हिंदी सेवक के लिए जरूरी है। मैं तो इस दिन सिवाय हिंदी के किसी की चिंता नहीं करता। दिन भर जितने भी आयोजन होते हैं, उनमें भागीदारी हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए ही किया करता हूं। लोगों को बताता हूं कि सिर्फ हिंदी दिवस पर ही नहीं, बाकी दिन भी हिंदी की चिंता करें। चिंता की खातिर क्रांति भी करना पड़े तो पीछे न हटें। हिंदी बची रहेगी तभी हम भी बचे रहेंगे।
हिंदी के लिए मैं यहां तक फिक्रमंद हूं कि हिंदी दिवस पर दिए जाने वाले मान-सम्मान में अपनी पूरी भागीदारी रखता हूं। इस बात का खास ख्याल रखता हूं कि कोई भी पुरस्कार मेरी निगाह से बचकर न निकल जाए। शो-केस में जब तक दो-ढाई दर्जन पुरस्कार न हों पता ही नहीं चलता कि मैं हिंदी का लेखक हूं भी कि नहीं। हिंदी का लेखक इतनी आसानी से थोड़े न बना हूं। मेहनत की है। ऊंची जगहों पर लिखा है। संपादकों की पीठ की खुजली मिटाई है। अखबारों-पत्रिकाओं में निरंतर लिखना हंसी-खेल न होता पियारे।
आप यकीन नहीं करेंगे- अपने मुहल्ले का मैं अकेला हिंदी का लेखक हूं। बड़ी पूछ रहती है मेरी मुहल्ले में। घरों में रामायण पाठ के लिए मुझे बुलाया जाता है। मेरे प्रकाशित व्यंग्यों के पाठ होते हैं। प्रत्येक हिंदी दिवस पर मुझे सम्मानित किया जाता है। हिंदी के प्रति मेरी चिंता में हर कोई शामिल रहता है। लोग अक्सर अपनी चिंता तक करना भूल जाते हैं हिंदी की खातिर।
लेकिन इतने भर से ही मैं हिंदी को उसका वो स्थान नहीं दिला पाऊंगा, जिसकी वह हकदार है। मुझे हिंदी के लिए अभी बहुत कुछ करना है। बहुत बड़ी चिंताएं जतानी हैं। अपनी पूरी जिंदगी भी अगर मैं हिंदी की चिंता में खपा दूं तो थोड़ी है।
हिंदी के प्रति मेरी चिंता और लगन को देख लोग मुझसे जलते हैं। सरेआम मेरा मजाक उड़ाते हैं। लेकिन मैं उनके मजाक की फिक्र नहीं करूंगा। तन-मन-धन से हिंदी की सेवा और चिंता में लगा रहूंगा। आखिर हिंदी मेरी भाषा है। मैं इससे ही खा-कमा रहा हूं।
हिंदी के लिए चिंता रखने वाले मेरे साथ जुड़ सकते हैं। हम सब मिलकर हिंदी के लिए आवाज बुलंद करेंगे। अंग्रेजी की जकड़न से हिंदी को मुक्त करेंगे। हिंदी दिवस पर सरकार से प्रार्थना कर कुछ और पुरस्कार शुरू करवाएंगे ताकि सबका भला हो सके। हिंदी की भलाई में ही तो हिंदी के लेखक की भलाई निहित है।
खैर, निकलता हूं मुझे आज कई आयोजनों में हिंदी पर चिंता जतलाने जाना है। हिंदी की चिंता मेरा धर्म भी है और कर्म भी। जय हिंदी दिवस।