जैसे सृष्टि में एक निश्चित ऋतु चक्र होता है, ठीक वैसे मन का भी एक निश्चित भाव चक्र होता है। हर भाव का एक अलग रंग है, अलग रस है और इन सभी रंगों के मेलजोल से ही इंद्रधनुष सजता है। होली का यही संदेश है कि जीवन एक इंद्रधनुष है। इसमें जीवन के सभी रंग भरपूर विस्तार लिए हुए हैं, इसका आनंद लें।
रंग ऎसे ही नहीं पैदा हुए, रंगों का एक गहरा विज्ञान है और हर रंग का मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर गहरा असर होता है। विज्ञापन की दुनिया में सारे विज्ञापक इसका फायदा उठाते हैं और सही रंगों का इस्तेमाल कर अपना उत्पाद बेचते हैं। आप ई मेल में या मोबाइल पर स्माइली भेजते हैं। अलग-अलग भाव भंगिमा लिए पीले रंग में रंगे छोटे-छोटे चेहरे बड़े प्यारे लगते हैं, लेकिन कभी सोचा, ये पीले क्यों बनाए गए? क्योंकि पीला रंग खुशी पैदा करता है, वह दिमाग में सेरोटोनिन नाम का द्रव पैदा करता है, जो प्रसन्नता की लहर फैलाता है।
फास्ट फूड कंपनियां अपनी दुकानों में पीले, नारंगी और लाल रंग का उपयोग करती हैं, क्योंकि ये रंग भूख को बढ़ाते हैं। ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने एक रिसर्च द्वारा खोजा है कि वहां पर एक पुल था, जो काले रंग का था, उसका रंग हरा करते ही वहां होने वाली आत्महत्याओं में 30 फीसदी कमी आई।
अस्तित्व पर असर
प्रकृति में जो रंगों का मेला लगा होता है, वह भी मनुष्य के अस्तित्व पर ऎसा ही असर डालता है। बसंत ऋतु और उसके बाद फाल्गुन के महीने में रंगों का संगीत सबसे शानदार होता है। प्रकृति का फूलों को रंगीन आशीर्वाद इन्हीं दो महीनों में सबसे ज्यादा मिलता है। प्राचीन मनुष्य के सारे त्योहार प्रकृति के सुर में सुर मिलाकर, प्रकृति की सुंदरता का उत्सव मनाने के लिए बनाए गए। होली उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। प्रकृति में छाए रंगों से “मैच” होने के लिए इंसान भी रंगों में सराबोर हो जाता है। इंसान और प्रकृति दोनों साथ मिलकर रंगों का उत्सव मनाते हैं।
उत्सव है मनोवैज्ञानिक
होली का अन्य महत्व इसलिए भी है, क्योंकि होली एक संपूर्ण त्योहार है। होली में क्या नहीं है। इसमें अशुभ का दहन है, दुर्भावों का रेचन है, गालियों की बौछार है, रंगों की बहार है, प्यार की पिचकारी है, लेकिन साथ में बुरा न मानो होली है की सीनाजोरी भी है। यानी हम वार करें और आप उफ्फ भी न करें। बंबईया भाषा में कहें तो होली का बिन्दास माहौल सब कुछ धो देता है।
जीवन में बिखेरे रंग
समाज में होली मनाई जाए, उससे पहले उसकी पगध्वनि लोगों के अंतर्मन में सुनाई देती है। मन में पुलक और तन में थिरक लिए लोग होली का इंतजार करते हैं। होली के सतरंगे त्योहार का मूल संदेश यही है कि जीवन एक उत्सव है, काम नहीं। और बोझ तो बिल्कुल भी नहीं है। कहते हैं होली खेलने की असल शुरूआत रंगीले रसीले कृष्ण कन्हैया के जीवन से हुई।
दरअसल उनका जीवन ही एक रास था, रस की फुहार था। बचपन से लेकर अंत तक वे अपने जीवन से प्रतिपल यही संदेश देते रहे थे कि जियो जी भरकर, मौज मनाओ, जीवन में रंग बिखेरो, लेकिन ऎसा नहीं है कि वे जीवन को उत्सव की तरह लेते हैं तो काम नहीं करते। काम तो करते हैं, लेकिन काम उत्सव के रंग में रंग जाता है। उनका कर्म भी नृत्य-संगीत में डूब जाता है।
कृष्ण का अपना जीवन देखें तो उन्होंने खेल-खेल में जितने बडे काम किए हैं, शायद ही किसी गंभीर व्यक्ति ने किए हों। आज तक उनकी महिमा गाई जा रही है। महाभारत जैसा महायुद्ध उन्होंने करवाया, लेकिन युद्ध के मैदान पर अर्जुन को जो गहन उपदेश दिया, वह भी ऎसे मानो गीत गा रहे हों। इसलिए उनका उपदेश बनी भगवद्गीता। क्या धरती पर कोई भी ऎसा अध्यात्म शास्त्र होगा, जो गाया गया हो?
इसलिए आश्चर्य नहीं कि कृष्ण के जीवन की घटनाओं से होली गहनता से जुड़ी है। किसी और संत के साथ होली नहीं जुड़ी। यह विचारणीय है। सिर्फ कृष्ण ही गोपिकाओं के साथ रास रचा सकते हैं।
यह उत्सव उस समय बना, जब नैतिकता की पकड़ बहुत ज्यादा थी। आदमी उसके बंधन तले दबा कुचला जा रहा था।
जो लोग मन की जटिलता को जानते थे, उन्होंने देखा होगा कि आदमी बहुत अधिक बंधन में जीए तो उसके भीतर एक तनाव पैदा होता है। नैतिकता निसर्ग के खिलाफ है, व्यक्ति को अपने नैसर्गिक मन को दबाकर जबरदस्ती सदाचरण करना पड़ता है।
इसलिए नैतिक आदमी को बीच-बीच में विश्राम भी लेना पड़ता है। होली नैतिक आदमी का विश्राम है। होलिका के उस पुतले के साथ अपना क्रोध और दुश्मनी भी जल जाती है। मन में घुमड़ते हुए भावों का निकास स्वस्थ जीवन के लिए नितांत आवश्यक है।
होली पर लोग जितने हल्के होते हैं, उतने किसी अवसर पर नहीं होते। होली के दो पहलू हैं, एक तो धार्मिक और दूसरा सामाजिक। धार्मिक पहलू तो पुराना है, पुराण कथा से जुड़ा है। दूसरा सामाजिक पहलू, जिसमें रेचन होता है और भड़ास निकाली जाती है। कृष्ण की होली तो उनके आध्यात्मिक ऎश्वर्य से निकला हुआ मासूम-सा अल्हड़ राग-रंग था, लेकिन आज होली दमित आधुनिक मनुष्य की जरूरत है।
हर महीने हो होली
सच तो यह है कि जैसा आदमी है, उसे देखकर ऎसा लगता है, हर साल की बजाय हर महीने होली होनी चाहिए। हर महीने एक दिन आपके सब नीति नियम के बंधन अलग हो जाने चाहिए, ताकि जो-जो भर गया है, जिस-जिस घाव में मवाद पैदा हो गई है, वह आप बाहर निकाल सकें और फिर से निर्मल हो पाएं।
एक बड़े मजे की बात है कि होली के दिन अगर कोई आपको गाली दे तो आप यह नहीं समझते कि आपको गाली दे रहा है। आप समझते हैं कि अपनी गाली निकाल रहा है, लेकिन किसी और दिन कोई आपको गाली दे तो आप समझते हैं कि वह आपको गाली देता है, लेकिन सच्चाई यह है कि उस दिन भी वह अपनी ही गाली निकालता है।
भीतर हैं दोनों
होली की कहानी का प्रतीक देखें तो हिरण्यकश्यप पिता है। पिता बीज है, पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्यप जैसी दुष्टात्मा को भी पता नहीं कि मेरे घर भक्त पैदा होगा, मेरे घोर आस्तिक होते हुए भी मेरे ही प्राणों से ऎसी उदाहरणीय आस्तिकता जन्मेगी। इसका विरोधाभास देखें। इधर नास्तिकता के घर आस्तिकता प्रकट हुई और हिरण्यकश्यप घबरा गया। जीवन भर की मान्यताएं, जीवन भर की धारणाएं दांव पर लग गई होंगी।
ओशो ने इस कहानी में छिपे हुए प्रतीक को सुंदरता से खोला है, “हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है और ऎसा बाप और बेटे का ही सवाल नहीं है। हर आज बीते कल के खिलाफ बगावत करता है। वर्तमान हमेशा अतीत से छुटकारे की चेष्टा करता है। अतीत पिता है, वर्तमान पुत्र है। हिरण्यक श्यप मनुष्य के बाहर नहीं है, न ही प्रहलाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रहलाद दो नहीं हैं।
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटने वाली दो घटनाएं हैं। जब तक मन में संदेह है, हिरण्यकश्यप मौजूद है। तब तक तुम्हारे भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे, लेकिन तुम जला न पाओगे। संदेह के राजपथ हैं, वहां भीड़ साथ है। श्रद्धा की पगडंडियां हैं, वहां तुम एकदम अकेले हो जाते हो, नितांत एकाकी। संदेह की क्षमता सिर्फ विध्वंस की है, सृजन की नहीं है। संदेह किसी को मिटा सकता है, किसी को बना हरगिज नहीं सकता। संदेह के पास सृजनात्मक ऊर्जा नहीं है।
शुभ निखरता है कुंदन-सा
प्रहलाद के फूल के सामने हिरण्यकश्यप का कांटा शमिंदा हो उठा होगा, ईष्र्या से जल गया होगा। नास्तिकता विध्वंसात्मक है, इसलिए उसकी सहोदर है आग। इसी तरह से हिरण्यकश्यप की बहन है अग्नि, होलिका, लेकिन अग्नि सिर्फ अशुभ को जला सकती है, शुभ तो उसमें से कुंदन की तरह निखरकर बाहर आता है।
इसीलिए आग की गोद में बैठा प्रहलाद बच गया। उस परम विजय के दिन को हमने अपनी जीवन शैली में उत्सव की तरह शामिल कर लिया। फिर जन सामान्य ने उसमें रंगों की बौछार जोड़ दी। पहले अग्नि में मन का कचरा जलाओ, उसके बाद प्रेम रंग की बरसात करो, यह होली का मूल स्वरूप है।
सार्थक हो होली
होली की सार्थकता तो तभी होगी, जब होली की भावदशा पूरे जीवन पर छा जाए। लोगों में यह समझ पैदा हो कि दूसरे जो भी बेहूदगी कर रहे हैं, वह उनके अपने मन का रेचन है, उससे हमारा कुछ लेना-देना नहीं है। दूसरा केवल निमित्त है, खूंटी की तरह है, उस पर लोग अपने-अपने कपडे टांग देते हैं। अगर यह बोध हो जाए कि जीवन एक खेल है, तो समूचा जीवन रंगों का, आनंद का उत्सव होगा।