आत्म-गीत
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कर दिये लो आज ढीले अब अपने सारे बंधन।
लगाम उतरी, जीन उतरी, अब नहीं जाना कहीं।।
भोर के सूर्य की पहली किरन के संग आकर
शांत जल पर एक कंकड़ फेंककर देखूं समय
धीरे – धीरे, रुकते – रुकते जायेगा थम
मन का यह भटकाव और सारा कोलाहल
ध्यान जागा, ज्ञान जन्मा, फिर तथागत हो गया मन।
सांस-लय लम्बी, दृष्टि गहरी, अब नहीं जाना कहीं।।
चलती है फिर भी दिखायी देती ठहरी
ये धरा, ये नभ, ये चाँद- सूरज और हवा
दुनियादारी की चकरघिन्नी यकायक गयी रुक
भीड़ में सम्भव हुआ निःशब्द एकाकी रहना
मन में बसा आनंद, पुलकित हो गया तन मस्त-मगन।
रम गयी खुशियों की धूमी, अब नहीं जाना कहीं।।
हर सपन की हर अगन ठण्डी पड़ने लगी अब
हर जलन की हर तपन ठण्डी पड़ने लगी अब
जीवन-मरण यह खेल है क्षण भर का लेकिन
लक्ष्य कैसा, प्यार की मंजिल बड़ी हो गयी अब
यज्ञ पूरा हो गया, पूरा हुआ जीवन का हवन।
घर की हो रही है वापसी, अब नहीं जाना कहीं।। – आनंद अभिषेक