दो अक्टूबर
दो अक्टूबर को बहुत रोए-
देखि के दशा
सौ में नब्बे की
बहुत रोए—
गांधी के बंदर
तीनों बंदर बहुत रोए—
रोते-रोते जब आँखें भर आईं
तीनों बंदर बतियाते-बतियाते
भूखे ही सो गए—
पेट पीठ में जाकर लगे
रोए पर चिल्लाए नहीं
और सो गए
कब तक चुपचाप यों भरेंगे सिसकियाँ
हक़ अब माँगने से मिलता नहीं
अब और न रोएँगे
अब और न सोएँगे
नींद अब आती नहीं
धीरज जाता रहा—
धीरज के कारण मेरे ही
ये बन बैठे हैं कुछ
मेरी बात आती-जाती रही—
योजनाएँ बनाते हैं जन-जन की
वे होती हैं उनके हित की
हमें तो समझ बाद में आती रही—
धोखा निरा धोखा ही सब कुछ
पाया नहीं अब तक कुछ
पास की जो पूँजी थी जाती रही—
आगे-आगे देखिए होता है क्या
पीढ़ियाँ हमको कोसेंगी
हमारे सोचने और करने की
शक्ति ही जाती रही
• प्रभाशंकर मिश्र (2/10 /1989)