और क्या कहेंगे
इतनी अच्छी थी उनकी तक़दीर
कि ग़ुलामियों की ओर ले जाती रेलगाड़ियों में
मिल गई उन्हें गाँड टिकाने की जगह
इतनी अच्छी थी उनकी तक़दीर
कि किसी ने नहीं समझा
उन्हें देशद्रोही या दहशतगर्द
इतनी अच्छी थी उनकी तक़दीर
कि जेबकतरों ने उन्हें अछूत माना
और सलामत रहे उनके सस्ते मगर कैमरेवाले फ़ोन
उनके मैले कपड़ों में कहीं बजते हुए
इतनी अच्छी थी उनकी तक़दीर
कि सकुशल वहाँ पहुँच जाने की ख़बर थी उनके पास
जहाँ बहुत धूल थी और बहुत भीड़
ये बहुत धूल और बहुत भीड़
रोज़ कुछ बीमार और कुछ ज़िंदा छोड़ देती थी—
भक्त बनने के लिए
इसे अच्छी तक़दीर नहीं तो और क्या कहेंगे
कि सत्ताएँ बदल जाती थीं
और लौटने के विकल्प खुले रहते थे।
- अविनाश मिश्र