महंगाई अर्थव्यवस्था की एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है। कभी कम तो कभी ज्यादा लेकिन कई ऐसे तत्व हैं जो इसको पैदा करते हैं। इसलिए इस पर पूरी तरह तो लगाम नहीं लगाई जा सकती लेकिन इस पर अंकुश लगाया जा सकता है। जब यह हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो स्थिति चिंतनीय हो जाती है। भारत में पिछले कुछ समय से हालात कुछ इसी तरह के बने हुए हैं।
रिजर्व बैंक ने एक बार फिर यह चेतावनी दी है कि अगले छह महीनों में महंगाई दर छह फीसद से ऊपर ही बनी रहेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि महामारी की वजह से महंगाई और बेरोजगारी का संकट न सिर्फ बढ़ा है बल्कि यह गंभीर रूप धारण कर चुका है। यह भी सही है कि ऐसे हालात सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के ज्यादातर देशों में बने हुए हैं। सब जगह लोग महंगाई से त्रस्त हैं। कमोबेश सभी देशों की अर्थव्यवस्था हिली पड़ी है। रोजगार का संकट भी गहराता जा रहा है।
जाहिर है, भारत इससे अछूता नहीं रह सकता। आम लोगों के लिए तो महंगाई का मतलब यही है कि रोजमर्रा के जरूरी सामान से लेकर खाने-पीने की चीजें और सब्जियां-फल, दूध, खाद्य तेल, ईंधन आदि के दाम लगातार बढ़ते जा रहे हैं। फिर एक स्थिति ऐसी आ जाती है कि लोग जरूरी चीजों में भी कटौती के लिए मजबूर होने लगते हैं। आज यही हालात बन गए हैं। दो साल के भीतर ज्यादातर चीजों के दाम साठ से अस्सी फीसद बढ़ गए हैं।
कंपनियां दाम बढ़ाने के पीछे कच्चे माल से ईंधन के दाम बढ़ने का तर्क दे रही हैं। लेकिन महंगाई का असर रोजगार पर भी व्यापक रूप से पड़ता है। महंगाई कारोबारी योजनाओं से लेकर उत्पादन को प्रभावित करती है। ऐसे में उद्योग भी लागत और खर्च घटाने के हरसंभव जतन करते दिखते हैं। कम से कम श्रम बल में काम चलाने की रणनीति रोजगार के अवसरों को प्रभावित करती है। महंगाई से निपटने के लिए लोगों को रोजगार मुहैया कराने की जरूरत है ताकि उनके हाथ में पैसा आना शुरू हो। इस मोर्चे पर केंद्र और राज्य सरकारें कामयाब होती नहीं दिख रही हैं।