प्राचीन भारतीय संस्कृति से युगों युगों पहले उत्पन्न हुई अनेक विद्याएं इस वैज्ञानिक युग मे भी अपनी सटीकता और सार्थकता के कारण कौतूहल का विषय हैं । आज उन सभी विद्याओं की जब वैज्ञानिक व्याख्या की जाती है तो हमारे पूर्वजों का अदम्य ज्ञान न केवल बड़ों बड़ों को दांतो तले उंगली दबाने पर मजबूर कर देता है बल्कि हमे अपनी हिन्दू संस्कृति पर गर्व होता है।
घाघ की कहावतें तो पुरातनकाल से ही मौसम वैज्ञानिक का काम करती रही हैं ।
पौराणिक युग की हिन्दू विद्याएं बड़ी विपुल और विविधिता-सम्पन्न हैं। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान तब से विद्यमान है जब शेष दुनिया ने इसे सोचा भी न था।
वैदिक काल से ही शून्य की अवधारणा, बीजगणित के तकनीक, वर्गमूल, घनमूल विद्यमान थे जिनके अनेकों उदाहरण वैदिक साहित्य में उपलब्ध हैं।
हनुमान चालीसा में ही पृथ्वी से सूर्य की दूरि मात्र एक श्लोक के माध्यम से बता दी गयी थी –
‘जुग सहस्त्र योजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू !’
अर्थात सूर्य (भानु) की दूरी पृथ्वी से एक जुग सहस्त्र योजन है जिसे हनुमान जी ने मधुर फल जान कर लील लिया था ।
हिन्दू वैदिक शास्त्रों के अनुसार
1 युग = 12000
1 सहस्त्र = 1000
1 योजन = 8 मील
होता है अर्थात पृथ्वी से सूर्य की दूरी
12000 X 1000 X 8 = 96,000,000 मील है ।
1मील = 1.6 किलोमीटर से परिवर्तित करें तो यह दूरी 96,000,000 × 1.6 = 153,600,000 किलोमीटर है ।
और जब आधुनिक युग के पश्चिमी वैज्ञानिकों ने आधुनिकतम तकनीक से सूर्य की पृथ्वी से दूरी मापी तो हूबहू यही दूरी सामने आई ।
खगोलविज्ञान अर्थात एस्ट्रोनॉमी प्राचीन भारत मे 2000 ई०पू० से ही विद्यमान है।
पुरातन काल में न प्रिंटिंग मशीनें थीं, न इन्टरनेट था जिसपर असीमित जानकारियां उपलब्ध हों फिर भी हमारी संस्कृति के वाहकों ने अपने शोध और पुरुषार्थ से ज्ञान से भरपूर विभिन्न शास्त्रों की रचना की।
उस काल में ही ऋषि मुनियों ने भौतिक शास्त्र के सन्दर्भ में ये अद्भुत अवधारणा दी थी कि ब्रम्हांड का निर्माण भूमि, जल, आग , आकाश और हवा से मिल कर हुआ है “क्षिति जल पावक गगन समीरा पञ्च तत्व से बना शरीरा”। आधुनिक युग के भौतिक शास्त्री इसे बहुत बाद में समझ पाये।
आर्यभट ने पांचवी शताब्दी में ही सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण के सटीक कारणों की व्याख्या किया और ये भी बताया कि ब्रम्हांड में सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों और घूमती है। इतना ही नहीं आर्यभट ने अपनी गणना से ये भी बता दिया था कि पृथ्वी गोल है, जिसका पाश्चात्य वैज्ञानिकों को बहुत बाद में पता लगा क्यूंकि उनकी प्राचीनतम सभ्यता मेसोपोटामिया में ये अवधारणा थी कि पृथ्वी चपटी है।
ऋषि कात्यायन ने परमाणु सिद्धांत ( Theory of atom ) एवं गुरुत्वाकर्षण की व्याख्या 600 ईoपूo ही कर दी थी तो उसी काल खंड में कश्यप ऋषि ने थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की व्याख्या कर दी थी। जबकि 1800 ईस्वी के बाद जॉन डाल्टन परमाणु सिद्धान्त और 1905 में जा करके थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी अल्बर्ट आइन्स्टाइन शेष दुनिया को बता पाए।
डिस्टिलेशन तकनीक से इत्र् (perfume) का निर्माण ,रंग एवं पेंट के उत्पादन में काम आने वाले पिगमेंट एवं डाई का निर्माण, चीनी उत्पादन की तकनीक,सोना , चांदी , ताम्बा, लोहा, पीतल जैसे धातुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन, रसायन विज्ञान एवं धातु विज्ञान के वो अनुपम उद्धरण हैं जो हिन्दू संस्कृति में ई०पू० पूर्व से ही विद्यमान हैं। नागार्जुन द्वारा रचित “रसरत्नाकर” रसायनशास्त्र का सबसे प्रसिद्द प्राचीन ग्रन्थ है।
आयुर्विज्ञान एवं शल्य चिकित्सा 800 ई०पू० से ही शुस्रुत एवं चरक ऋषि जैसे विद्वानों ने शुरू कर दी थी जिसका उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं मिलता।
आज जिसको दुनिया हर्बल के नाम से जानती है उसे आयुर्वेद के रूप में उत्तरवैदिक काल में ही हमारी संस्कृति ने अपना लिया था।
जहाँ “भृगुशिल्पसंहिता” इंजीनियरिंग का सब से पुराना ग्रन्थ है वहीं अर्थशास्त्र महाभारत काल से ही विद्यमान है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से ज्ञात होता है कि सिविल इंजीनियरिंग एवं वास्तु शास्त्र हिन्दू संस्कृति के कितने पुराने समय से अभिन्न अंग हैं।
है न गर्व करने योग्य हमारी हिन्दू संस्कृति !
– मनोज कुमार मिश्र