बहुत पुरानी बात है। उत्तर भारत के एक विश्वविद्यालय में दीक्षान्त समारोह हो रहा था। दीक्षान्त-भाषण देने के लिए देश के एक महापुरुष को आंमत्रित किया गया था। वह आये। समारोह की कार्यवाही आरंम्भ हुई। वह राष्ट्रीय विश्वविद्यालय था। उसके अधिष्ठाता भारतीय संस्कति के परम उपासक थे, किन्तु सारी कार्यवाही अंग्रेजी में हुई। उसे देखकर मुख्य अतिथि को बड़ी वेदना हुई। उनका मन आहत हो गया। दीक्षान्त-भाषण में उन्होंने जो कहा था, उसका एक-एक शब्द आज भी भारत के गगन-मण्डल में गूंज रहा है।
उन्होंने कहा था। “अंग्रेजों को हम गालियां देते हैं कि उन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बना रक्खा है, लेकिन अंग्रेजी के तो हम खुद ही गुलाम बन गये हैं। अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को पामाल किया है, परन्तु अंग्रेजी की अपनी इस गुलामी के लिए मैं उन्हे जिम्मेदार नही समझता।
खुद अंग्रेजी सीखने और अपने बच्चों को अंग्रेजी सिखाने के लिए हम कितनी मेहनत करते हैं। यदि कोई हमें यह कहता है कि हम अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी बोल लेते हैं तो हम मारे खुशी के फूले नहीं समाते। इससे बढ़कर दयनीय गुलामी और क्या हो सकती है? इसकी वजह से हमारे बच्चों पर कितना जुल्म होता है। अंग्रेजी के प्रति हमारे इस मोह के कारण देश की कितनी शक्ति और कितना श्रम बरबाद होता है।”
“अभी जो कार्यवाही यहां हुई, जो कुछ कहा या पढ़ा गया, उसे आम जनता कुछ भी नहीं समझ सकी। फिर भी हमारी जनता में इतनी उदारता और धीरज है कि वह चुपचाप सभा में बैठी रहती है और खाक समझ में न आने पर भी यह सोचकर संतोष कर लेती है कि आखिर ये हमारे नेता हैं न! कुछ अच्छी ही बात कहते होंगे। लेकिन इससे उसे लाभ क्या? वह तो जैसी आई थी, वैसी ही खाली लौट जाती है! मैं तो यह देखकर हैरान रह गया।” भाषणकर्ता थे महात्मा गांधी, वह शिक्षा-संस्था थी काशी का ‘हिन्दू विश्वविद्यालय’ और उसके तत्कालीन उपकुलपति थे सर्वपल्ली राधाकृष्णन।