फिल्म समीक्षा: जग्गा जासूस, हंसाने में कामयाब

0
488

फिल्म का कथानक एक अनाथ बच्चे जग्गा के आस-पास रचा गया है जो तेज दिमाग तो है लेकिन बोलते हुए हकलाता है. जग्गा को गोद लेने वाले पिता उसे एक बोर्डिंग स्कूल में डाल देते हैं और फिर कभी लौटकर वापस नहीं आते. यहां पढ़ाई के दौरान उसे हर साल जन्मदिन पर अपने पिता की तरफ से एक वीडियो कैसेट तोहफे में मिलती है. इन कैसेटों से वह जिंदगी के कुछ ऐसे गुर सीखता है जो उसे जग्गा से जग्गा जासूस बना देते हैं.

जग्गा पिता के तोहफों और सीखों से हर सवाल का जवाब खोजने की आदत पाल चुका है. इसी आदत या खूबी के जरिए वह अपने स्कूल टीचर की मौत को हत्या साबित कर देता है जबकि इस केस को पुलिस आत्महत्या मानकर बंद कर चुकी होती है. एक किशोर लड़के द्वारा चुटकियों में इस मामले को सुलझाते हुए देखकर आप थोड़ा हैरान हो सकते हैं लेकिन फिल्म का यह हिस्सा इतना तार्किक है कि आपकी हैरानी जल्दी ही शांत भी हो जाती है.

अपने आस-पास जो भी घट रहा है उससे हर पल चौकन्ना रहने वाला जग्गा पहले अपने शहर में हुई कुछ अनचाही वारदातों से और फिर उन पर रिसर्च कर रही एक पत्रकार से टकराता है. श्रुति नाम की यह पत्रकार नायक के पिता की तरह ही ‘बैडलकी’ है और उसकी जिंदगी में ठीक वैसे ही शामिल होती है जैसे कभी पिता हुए थे. इस बीच जग्गा को एक बार अपने पिता से मिलने वाला वह सालाना पैकेट नहीं मिलता तो वह परेशान हो जाता है और उन्हें खोजने निकल पड़ता है. फिल्म का यह हिस्सा जितना रंगीन है, उतना ही मजेदार, मनोरंजक और भावुक करने वाला भी है.

इसके बाद जग्गा का तेज दिमाग, अपने पिता की कथित मौत की मिस्ट्री, हथियारों की स्मगलिंग और नक्सली आंदोलनों से लेकर आतंकी गुटों लिट्टे और लश्कर-ए-तैयबा तक के मुद्दे समझने-सुलझाने में बुरी तरह उलझता है. इस चकरघिन्नी में तीन मुख्य पात्र कोलकाता से लेकर बर्मा और तंजानिया तक के चक्कर लगा लेते हैं और देखने वाले थोड़ी मुश्किल से कहानी का तुक-तान समझ पाते हैं.

फिल्म के सेकंड हाफ में शामिल घटनाक्रम पहले हिस्से की तुलना में कुछ सुस्ती से गुजरते हैं. इस दौरान कई दृश्यों में जिराफ, शुतुरमुर्ग, ईम्यू और टाइगर इस सहजता से प्रकट होते हैं कि आपको लगने लगता है कि आप सिनेमाघर में नहीं, किसी चिड़ियाघर में बैठे हैं. इस हिस्से की सबसे बड़ी कमी है कि यह जग्गा के लॉजिक वाले दिमाग से ज्यादा श्रुति की बुरी किस्मत के सहारे चीजें घटते हुए दिखाती है. हालांकि संगीत और हंसाने वाले कुछ सीक्वेंस कुछ वक्त आपको लुभाए रखते हैं.

रणबीर कपूर ने अच्छा काम किया है. ध्यान दें, अच्छा…अद्भुत नहीं, जैसा वे बर्फी या तमाशा में दिखा चुके हैं. हां, हकलाने के कारण न बोल पाने की जो मजबूरी उनके चेहरे पर दिखती है, वह आपको जरूर प्रभावित करती है. कैटरीना कैफ खोजी पत्रकार बनकर अपनी पिछली फिल्मों से बढ़िया अभिनय करती हैं और हंसाने में कामयाब रहती हैं. इसके अलावा सौरभ शुक्ला खास तौर पर ध्यान खींचते हैं. उनके और जग्गा के बीच तुक्का लगा – तुक्का लगा जैसा नर्सरी-राइमनुमा एक गीत फिल्माया गया है जो मजेदार और याद रखने लायक है.

यहां अगर कोई साथ छोड़ता है, तो वह है एडिटिंग. इस रंगीन-रोमांचक फिल्म की लंबाई थोड़ी कम कर स्क्रिप्ट क्रिस्प रखी जाती तो मजा बना रहता. फिल्म के क्लाइमैक्स में आप किसी खुलासे की उम्मीद कर रहे होते हैं, लेकिन यह उम्मीद आखिरी सीन तक पूरी नहीं होती और यहां निर्देशक अनुराग बासु सबसे ज्यादा निराश करते हैं. बावजूद इसके मनोहारी लोकेशंस पर बेहतरीन फिल्मांकन को देखने, सुरीले और चटपटे कविताई संवादों को सुनने के लिए भी एक बार सिनेमाघर का रुख किया जा सकता है.

लेखक-निर्देशक : अनुराग बसु, संगीत : प्रीतम, कलाकार : रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, सौरभ शुक्ला, शाश्वत चटर्जी

Please follow and like us:
Pin Share