इतिहास रणथंभौर किले का
2013 में विश्व धरोहर समिति की 37 वीं बैठक में सवाई माधोपुर के साथ पांच और किलों को (कुंभलगढ़, जयपुर, झालावाड़, चित्तौड़गढ़, जैसलमेर) यूनेस्को विश्व विरासत धरोहर के रूप में इन स्थल को मान्यता प्रदान की गई।
किले के शोधकर्ताओं और पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार 944 ईस्वी मैं सपलदक्ष के शासन के दौरान इस किले का निर्माण शुरू किया गया। कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि जयंत के शासनकाल में 1110 ईसवी में इस किले का निर्माण शुरू हुआ था। और राजस्थान सरकार के अंबर विकास एवं प्रबंधन प्राधिकरण ने यह संभावना जताई है कि रणथम्भौर दुर्ग का निर्माण सल्पालक्ष के समय 10 वीं शताब्दी के मध्य में शुरू हुआ और कुछ सदियों तक इसका निर्माण कार्य चलता रहा। शुरुआत में इस किले का नाम रणथम्भौर नहीं था। इस किले को रणस्तंभ या रणस्तंभपूरा कहा जाता था।
इतिहास के जानकारों की माने तो 12वीं शताब्दी में चौहान वंश के राजा पृथ्वीराज प्रथम का झुकाव जैन धर्म की तरफ बढ़ा, उसी समय जैन संत सिद्धसेनसूरी ने इस जगह को जैनियों का पवित्र तीर्थ स्थल भी घोषित कर दिया। 1192 में भारत के हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान और विदेशी आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी के बीच में तराइन का युद्ध हुआ, उस युद्ध के दौरान मोहम्मद गोरी ने धोखे से पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया, इस हार के बाद पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविंद राज ने रणथम्भौर को अपनी राजधानी बनाया।
पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविंद राज के अलावा इस जगह पर कई और हिंदू राजाओं और मुस्लिम शासकों ने भी इस किले पर शासन किया, इनमे से राणा सांगा, महाराणा कुम्भा, हम्मीर देव चौहान,राव सुरजन हाडा और मुगल शासकों में शेरशाह सुरी,अलाउद्दीन खिलजी ने भी समय-समय इस दुर्ग पर शासन किया । लेकिन राणा हम्मीर देव चौहान का शासनकाल रणथम्भौर दुर्ग का सबसे प्रसिद्ध शासन काल माना जाता है। हम्मीर देव का शासन काल 1282 ईस्वी से लेकर 1301 ईस्वी तक रहा, हम्मीर देव के 19 वर्ष के शासनकाल के समय रणथम्भौर की ख्याति चारों और फ़ैल गई, अपने शासनकाल में हम्मीर देव ने कुल 17 युद्ध किये जिनमे से उन्हें 13 युद्ध में विजय प्राप्त हुई।
मेवाड़ के राणा सांगा जब खानवा के युद्ध में घायल हो गए थे, उस समय इलाज के लिए राणा ने कुछ समय इस दुर्ग में बिताया था। हम्मीर देव के शासन से पहले रणथम्भौर दुर्ग पर बहुत सारे बाहरी आक्रमण हुए। और आने वाले समय में यह दुर्ग लगातार युद्ध के दंश झेलता रहा, इस दुर्ग पर आधिपत्य जमाने के लिए राजपूत और मुगल शासकों ने लगातार आक्रमण किये। कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर मुगल शासक अकबर के समय तक इस दुर्ग पर अनेको बार हमले हुए। इन आक्रमणों की शुरुआत 1192 में पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गौरी से युद्ध में हार मिलने के बाद यह क्रम शुरू हुआ जो 18वीं शताब्दी तक लगातार चलता रहा। पृथ्वीराज की मृत्यु के पश्चात 1209 चौहानो ने महम्मद गौरी पर इस दुर्ग अधिकार करने के लिए वापस आक्रमण कर दिया और
दुबारा इस दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया 7 इस युद्ध के बाद क्रमश इस पर अनेक आक्रमण हुए , दिल्ली के शासक इल्तुतमीश ने 1226 में आक्रमण किया, उसके बाद इल्तुतमीश की मौत के बाद 1236 में रजिया सुल्तान ने यहाँ पर कब्जा कर लिया , 1248-58 में बलबन ने भी इस जगह पर कई बार आक्रमण किये , 1290-1292 में जलालुद्दीन खिल्जी ने भी दुर्ग आक्रमण किये , 1301 में अलाऊद्दीन खिलजी ने इस के अलावा उस ने दो बार और आक्रमण किये, इस सब के बाद 1325 में फ़िरोजशाह तुगलक ,1489 में मालवा के मुहम्म्द खिलजी , 1529 में मेवाड़ के महाराणा कुम्भा , 1530 में गुजरात के बहादुर शाह और 1543 में शेरशाह सुरी ने आक्रमण किये। 1569 अकबर ने उस समय की आमेर रियासत के राजाओ के साथ मिल कर आक्रमण दिया और उस समय के रणथम्भौर दुर्ग के तत्कालीन शासक राव सुरजन हाड़ा से सन्धि कर ली।
17 वीं शताब्दी में यह किला जयपुर के कछवाहा महाराजाओं के आधीन हो गया और उसके पश्चात यह किला भारत की स्वतंत्रता तक जयपुर रियासत रियासत का हिस्सा बना रहा। समय के साथ यह किला और किले के आसपास का क्षेत्र जयपुर के महाराजाओं की पसंदीदा शिकारस्थली बन गया। 18 वीं शताब्दी में सवाई माधोसिंह ने मुगल शासको विनती करके रणथम्भौर के आस पास के गांव का विकाश करना शुरू कर दिया जिससे इस किले को भी काफी मजबूती मिली और समय के साथ इन गांव का नाम बदल कर सवाई माधोपुर कर दिया गया 7 1964 के बाद से ही ये किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियंत्रण में है।