सत्ता के लिए छोड़ा अपना स्वभाव, अब अपनों ने ही दे दिया दगा
उपेन्द्र नाथ राय
सितम्बर 2020 में मुम्बई के बांद्रा स्थित कंगना रनौत के बंगले के हिस्से को बीएमसी ने जब गिराया था तो रनौत ने कहा था, “ आज मेरा घर टूटा है, कल तुम्हारा घमंड टूटेगा। ये वक्त का पहिया है, याद रखना, ये एक जैसा नहीं रहता।” आज इस बात की बहुत याद आ रही है, जब महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की सरकार गिरने की कगार पर है। हालांकि इस बात में कोई दम नहीं दिखता कि उनका श्राप लग गया लेकिन कंगना के इस बात में जरूर दम है कि घमंड सबका एक दिन अवश्य टूटता है। यह सभी को समझने की जरूरत है। जो इस बात को समझ लेता है, वह ऊंचा उठने के बाद भी धरातल को नहीं छोड़ता। अपनी मूल संस्कृति या स्वभाव को जो भूला देता है, उसकी गति यही होती है, जो वर्तमान में शिव सेना झेल रही है।
वर्तमान घटनाक्रम तो यही बता रहा है कि उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद नीचे धरातल छोड़ चुके थे। उनको अपने लोग नहीं दिख रहे थे और वे शरद पवार और कांग्रेस के हाथों की कठपुतली बन चुके थे। यही कारण है कि उनके पैरों के नीचे से धरातल खिसक गया, उनके अपने लोगों में ही नाराजगी बढ़ती गयी और वे समझ नहीं पाये। यह न समझ पाने की प्रक्रिया से तो यही समझा जा सकता है कि संवाद की कमी रही। इसमें भी यदि कुछ विधायकों में नाराजगी रहती तो यह कहा जा सकता है कि सभी को खुश नहीं किया जा सकता। इस लोकतंत्र में आपकी ही पार्टी के सत्तर प्रतिशत से अधिक विधायक नाराज हो जाएं और वे आपको हटाने के लिए उतारू हो जायं तो यह निश्चय ही संवाद की कमी थी। सबसे बड़ी बात यह रही कि आपके प्रदेश से ही तीस से ज्यादा विधायक एक साथ प्रदेश के बाहर जा रहे हैं और आपके इंटेलिंजेंस को सूचना ही नहीं रही। यह शासन स्तर का फेल्योर कहा जा सकता है।
हालांकि तत्कालिक घटनाक्रम जो भी हो, यह सबक सभी पार्टियों के लिए है कि जनप्रतिनिधियों को दबाकर रखने का नतीजा खतरनाक होता है। जब पार्टी के अंदर विस्फोट होता है तो वह घातक हो जाता है। यह स्थिति पहले कांग्रेस में होती रही है, लेकिन कांग्रेस मुखिया इंदिरा गांधी या राजीव गांधी जैसे व्यक्तित्व के आगे सब फेल्योर हो जाते थे। इसका कारण यह था कि इंदिरा गांधी में डिक्टेटरशिप की भावना होते हुए भी वे दिग्गज नेताओं को हमेशा अपने पास रखती थीं। बहुमत के भावनाओं को समझने के लिए उनके गुप्तचर हमेशा सक्रिय रहते थे। उन सूचनाओं के आधार पर वे आगे का निर्णय लेती थीं। बाहर से कठोर होते हुए भी मौका देख नरम होने में भी वे कभी कोताही नहीं करती थीं। यही कारण है कि वीपी सिंह हों या चंद्रशेखर जी हों या एचडी देवगौड़ा सब अलग होकर आंधी की तरह घर में धूल भरने का काम तो किये लेकिन आंधी की तरह ही थोड़े समय बाद खुद विलुप्त हो गये। शरद पवार और ममता बनर्जी अपनी पार्टियों को सहेजने में इस कारण सफल रहे कि कांग्रेस में अब कोई प्रमुख व्यक्तित्व नहीं रह गया।
कांग्रेस राज्यों में विरोधी दल की सरकार को गिराने की प्रक्रिया में भी हमेशा लगी रहती थी। मंदिर आंदोलन के समय सात दिसंबर 1992 को जब अयोध्या का विवादित ढांचा गिरा तो उस समय चार प्रदेशों में (यूपी की कल्याण सिंह सरकार, हिमाचल प्रदेश की शांता कुमार, राजस्थान की भैरों सिंह शेखावत और एमपी की सुंदर लाल पटवा) भाजपा की सरकार थी, जिसे पीवी नरसिंहा राव ने बर्खास्त कर दिया था। उस समय भी यह सवाल उठा कि कल्याण सिंह की गलती तो कहा जा सकता है लेकिन हिमांचल, राजस्थान व मध्य प्रदेश की सरकारों की गलती क्या थी।
इसके पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने तो पहली बार किसी विपक्ष ने पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, वह भी 13 पार्टियों के गठजोड़ के साथ। अटल बिहारी वाजपेयी भावुक थे। वे राजनीति की मर्यादा कभी नहीं भूले और सत्ता पाने के बाद भी वे विरोधियों को कभी पश्त करने के बारे में नहीं सोचे लेकिन इसके बाद पुन: सत्ता में आने पर कांग्रेस अपने पुराने रौ में आ गयी।
अब भाजपा भी बदल चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विपक्ष पर उसी हथियार को और अधिक तेज कर चलाने का काम कर रहे हैं, जो कभी कांग्रेस प्रयोग किया करती थी। वर्तमान भाजपा और कांग्रेस की संस्कृति में बहुत बड़ा अंतर नहीं रह गया है। कांग्रेस भी अपने विरोधियों को दबाने के लिए हर हथकंडे अपनाती थी। आज भाजपा उससे भी आगे बढ़कर पार्टी के शीर्षस्थ को भी दबाने का प्रयास कर रही है। इस बीच भाजपा में भी आधे नेता दूसरी पार्टियों से शामिल हो चुके हैं, जो संस्कृति के लिए नहीं, सिर्फ पद की लालसा से यहां आए हैं। उसमें बहुत लोगों की महत्वकांक्षा यहां भी पूरी नहीं होती दिख रही है। जिनमें उबाल भी आ रहा है। सिर्फ इंतजार है, भाजपा के चमकते सितारे पर धूल-गर्दा गिरने का, जैसे ही भाजपा गर्दिश में जाएगी। एक दिन यहां भी वैसे ही विस्फोट की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, जैसा कि आज शिव सेना में हो रहा है।
हालांकि चढ़ते सितारे का अधिकांश लोग सलाम करते हैं। आज वैसा ही भाजपा के साथ है। इस चढ़ते सितारे का कारण है कि नरेन्द्र मोदी जैसा व्यक्तित्व केन्द्र में नेतृत्व कर रहा है। पार्टी में और भी कई सितारे हैं, जो भविष्य में भाजपा के लिए चमकते हुए सितारे का काम करेंगे लेकिन किसी सितारे की एक आयु होती है। वैसे ही भाजपा या किसी भी पार्टी की एक आयु है, जो एक दिन पूरा हो जाएगा। ऐसे में संगठन को भाई-बंदी के आधार पर चलाना, लंबे समय तक चलाने के लिए डिक्टेटरशिप का फार्मूला न अपनाना ही बेहतर होता है।
कंगना रनौत के बयान में यह दम जरूर दिखता है कि घमंड सबका चूर होता है। इस कारण हर वक्त प्रयास होना चाहिए कि घमंड आये ही नहीं, जिससे चूर होने की स्थिति पैदा न हो। अटल की नीति इस मायने में हमेशा याद की जाएगी, जहां कभी भी कोई घमंड देखने को नहीं मिला, वे विपक्ष में रहे हों या सत्ता में। हर वक्त एक राजनीतिक मर्यादा बनाकर ही समाज सेवा में लगे रहे। (लेखक-वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं।)