अंशुमाली रस्तोगी
मुझे प्रायः उन लोगों पर हंसी आती है, जो ये कहते हैं कि उन्हें बाजार की समझ नहीं! जबकि बाजार दिन रात उनके हर खेल, हर खुशी, हर दुःख, हर सफलता, हर असफलता में उनके साथ रहता है। पता नहीं, वे बाजार को देख नहीं पाते या देखकर भी उससे अनजान बने रहते हैं।
अच्छा, बाजार जिन्हें समझ नहीं आता उन्हें ‘डिस्काउंट’ और ‘ऑफर’ बहुत अच्छे से समझ आ जाते हैं। फ्री की भाषा व परिभाषा तुरंत समझ आ जाती है। ट्रेंड समझ आ जाता है। स्टॉक मार्केट में निवेश करना समझ आ जाता है। किसी के जीने या मरने में कपड़े कैसे पहनकर जाना चाहिए, समझ आ जाता है। मोबाइल पर सोशल मीडिया चलाना समझ आ जाता है। लेकिन बाजार उन्हें समझ नहीं आता।
दरअसल, बाजार को समझने, जानने, पहचाने और देखने के लिए न दिमाग न आंख की जरूरत नहीं होती। बाजार अपनी हरकतों से हमें हर पल खुद के बारे में बताता रहता है। और, हम चलते भी उसी के हिसाब से हैं। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) एक प्रकार का बाजार ही तो है। जहां हमारा दिमाग नहीं पहुंच पाता, वहां बाजार पहुंच जाता है।
बाजार शहर से होता-होता गांव-देहात तक में पहुंच गया है। गांव का आदमी भी यही चाहता है कि वो बाजार के तरीके से चले। इंटरनेट और मोबाइल ने बाजार को हमारे इतना करीब ला दिया है कि अब हमें न दिन में न रात में सपने ही नहीं आते। हमारे सारे सपनों पर फिलहाल किस्म-किस्म की एप्स का कब्जा है। टहलते-दौड़ते हैं तो एप्स के सहारे। खाते हैं तो एप्स के सहारे। सजते-संवारते हैं तो बाजार के सहारे। अब तो अखबारों में छपने वाले शोक संदेशों में भी बाजार घुस आया है।
ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘पागलखाना’ में वे इसी बाजार से तो बचने की कोशिश में लगे रहे उम्र भर। कभी सुरंग खोदते। कभी सपनों के न आने की शिकायत करते। कभी अपने बेटे को मॉल (बाजार) से बचने की सलाह देते। लेकिन वे पागल नहीं हुए थे। बल्कि बाजार और लोगों ने उन्हें पागल समझ लिया था। इसलिए तो मनोवैज्ञानिक भी उनके पागलपन को समझ नहीं पाया। दवाइयों के सहारे ही उन्हें चलता व घसीटता रहा। अंत में हश्र क्या हुआ; उन्हें कूदकर खुद को बाजार की सुरंग में धकेलना ही पड़ा। बाजार खुश कि अतंत: वो ‘जीत’ गया।
‘पागलखाना’ को पढ़ते समय मैं सोच रहा था कि हिंदी में बाजार को इस तरह लिख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं। उनके लिए भी नहीं, जो रात-दिन बाजार के बीच रहते हुए भी इस पर उस तरीके नहीं सोच पाते जैसा ज्ञान जी लिख पाए। मैं तो कहता हूं, ‘पागलखाना’ पढ़ लीजिए फिर कभी किसी से जरूरत ही नहीं पड़ेगी बाजार के बारे में पूछने या समझने की। क्योंकि जहां-जहां मनुष्य है वहां-वहां बाजार है। ये दुनिया, ये समाज बहुत तेजी से बाजार के पागलखाने में प्रवेश कर रही है। डिजिटल ने ये काम और भी आसान कर दिया है।
सुरंग अभी भी खोदी जा रही है। सपने आंखों से दूर बहुत दूर जा चुके हैं। मनोवैज्ञानिक खुश हैं कि दुनिया में पागल तेजी से बढ़ रहे हैं। उनकी दुकान अच्छी चल रही है। उनका चिकित्सा का बाजार ग्रो कर रहा है।
बाजार में टिके और बने रहने के लिए हर कोई एक अदद ‘पागलखाने’ की तलाश में है।