बासोड़ा शीतलाष्टमी: सोमवार 17 मार्च 2020
हमारा भारत देश देवी देवताओं में विश्वास, श्रद्धा एवं भक्ति रखने वाला देश होने के कारण यहाँ वर्ष भर में अनेकों देवी देवताओं के पूजा अर्चना करने की विधि विधान है। अनेको देवी देवताओं में से एक शीतला माता भी हिंदुधर्मलम्बियों के मध्य बहुत प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण देवीयों में से एक हैं। शीतला देवी को पूजे जाने की परंपरा हमारे देश में प्राचीनकाल से चली आ रही है।
स्कंद पुराण में शीतला माता अपने हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण कर अपने वाहन गर्दभ पर विराजमान हो चलती हैं ऐसा बताया गया है। इन्हें चेचक, हैजा आदि जैसे अनेको रोगों की देवी स्वरुप पूजार्चना करने को निर्दिष्ट किया गया है। शीत ऋतु के समाप्ती एवं ग्रीष्म ऋतु के आगम समय में हम मनुष्य तरह-तरह के रोगों से ग्रषित हो जाया करते हैं।
इस ऋतु में विशेषतः चेचक, हैजा, फोड़े-फुंसी, ज्वर जैसी शारीरिक कष्ट दायक रोगों को दूर कर मानवीय शारीर को कष्टों से दूर कर शीतलता प्रदान करने वाली देवी ( इसलिए देवी का नाम शीतला देवी पड़ा) के रूप में कलश, सूप, झाड़ू जैसी वासतुओं का प्रतीकात्मक महत्व होता है। चेचक रोग से ग्रस्त रोगी व्यग्रता में अपने वस्त्र तक उतार फ़ेंक देता है। सूप से रोगी को शीतल हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े-फुंसियाँ फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने से रोकने के अलावा उनमे पैदा होने वाली किटारुणो को मार देती है।
ज्वर ग्रषित रोगी को ठंडे जल की जरूरत होती है अत: कलश का उसके प्रतीकात्मक स्वरुप है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक में पड़ने वाले दाग हमेशा के लिये मिट जाते हैं। इसीलिये शीतला माता के मंदिरों में में हम माता को गर्दभ के पीठ पर आसीन देख सकते हैं। शीतला माता के संग ज्वरासुर- ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी – हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती – रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के स्वरूप विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं कीटाणु नाशक जल होता है।
स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में हमें मिलता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना स्वमं भगवान शंकर ने लोकहित की दृष्टि से किया था।
हिन्दू धर्मालंबियों के मान्यता अनुसार इस व्रत को करने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं। वैसे देखा जाय तो प्राचीनकाल में आज के जैसे इतने डॉक्टर इतने अस्पताल और तरह-तरह के दवाइयां उपलब्ध नहीं होने के कारण हम मनुष्य को होने वाले किसी भी रोग व्याधि में साफ-सफाई एवं एतिहात रख कर ही वैद्य के द्वारा रोगियों का इलाज किया जाता था। ऐसे में हमें यही कहना पड़ता है कि जैसे जैसे हमारी मानव सभ्यता विकसित होती चली गयी वैसे वैसे हमारी पुरानी रीती रिवाजो एवं मान्यताओं एवं संस्कारों की तिलांजलि देती चली गयी।
- प्रस्तुति: जी के चक्रवर्ती