यादगार संस्मरण: अनंत मिश्र
विद्यार्थी जी यानी धीरेंद्र विद्यार्थी…। लखनऊ में जब अस्सी के दशक के आखिरी में नवभारत टाइम्स बंद हुआ तो विद्यार्थी खाली हाथ हो गए। दो छोटे-छोटे बच्चे, पत्नी और वह खुद…कच्चा परिवार था। कुछ वर्ष इधर-उधर भटके साल 1995 में अमर उजाला ने लखनऊ से संस्करण शुरू किया। तब अखबार कानपुर से छपकर आता था। ओडियन सिनेमा वाली रोड पर बाएं हाथ पर भीतर जाकर ब्यूरो कार्यालय था। इसी दौर में धीरेंद्र विद्यार्थी को फिर अखबार के लिए कलम चलाने का मौका मिला। साहित्यकार प्रवृत्ति के थे। कविताएं भी लिखते थे सो ब्यूरो चीफ बंशीधर और सिटी इंचार्ज प्रद्युम्न तिवारी ने उन्हें लखनऊ की सांस्कृतिक गतिविधियों को रिपोर्टिंग का काम सौंपा। उन्होंने अच्छी रिपोर्टिंग और चले भी खूब। दो तीन वर्ष बाद सहारा चले गए और वहां से 1998 या 99 में हिन्दुस्तान लखनऊ में आ गए। हिन्दुस्तान ने उन्हें सीतापुर का जिम्मा सौंपा।
लखनऊ अमर उजाला में मेरी मुलाकात विद्यार्थी जी से हुई। इसी समय ‘कीड़ाजड़ी’, ‘यह भी कोई देस है महाराज’, ‘नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़ती’ फेम अनिल यादव भी मेरठ से लखनऊ अमर उजाला आए थे। धीरेंद्र विद्यार्थी आलमबाग बस अड्डे के सामने की तरफ जाने वाली सड़क पर कुछ दूर आगे चलकर दाएं हाथ स्थित एक रेलवे कालोनी में रहते थे। सो उन्होंने अनिल यादव के लिए भी एक कमरा उसी कालोनी में देख लिया। मेरा घर भी आलमबाग में कानपुर रोड पर ही थी।
विद्यार्थी, मैं और अनिल यादव…की तिकड़ी बन गई। सुबह से लेकर रात तक साथ ही रहते थे। खबरों के लिए तरह-तरह के एंगल डिस्कस करते थे। शाम को खबरें लिखी जाती थीं। विद्यार्थी जी भी को हर दिन कुछ ना कुछ नया सुनाते थे। कई बार नई-नई चीजें गढ़कर सुनाते थे। हम लोग तुरंत पकड़ लेते थे, इस पर विद्यार्थी तुनक जाते थे। विद्यार्थी के मुंह से जागरण चौराहे के पास रहने वाले शकील बदमाश की कई हम सुनते थे। गोली-कट्टा उनकी बातचीत में हमेशा शामिल रहता था। अनिल यादव ने तो उनका नाम ही ‘कट्टा गुरु’ रख दिया था।
विद्यार्थी जी के पास सिलेटी रंग की एक सुवेगा मोपेड थी। शाम को अखबार का काम खत्म करके हम लोग उनके साथ घर के लिए निकलते थे। हम तीनों के घर का राह एक थी। कुछ के घर पहले तो कुछ के बाद में। उन्हीं की मोपेड पर तीनों बैठ जाते थे। मोपेड हुसैनगंज की चढ़ाई पर लोड ना लेने पाने के कारण रुक जाती थी। फिर हम पैदल चलते थे। सिटी मांटेसरी स्कूल के सामने फिर उस पर बैठ जाते थे। इसके बाद यह मोपेड चूं..चूं करती हुए चारबाग स्टेशन के सामने चचा के होटल पर रुकती थी। होटल क्या था बस फुटपाथ पर भोजनालय था। चचा के फायदे की चार बातें कर हम लोग वहां दाल-चावल फ्राई खाते थे। एक-एक सिगरेट पीते और वहीं से घर को रवाना हो जाते थे। अनिल और विद्यार्थी जी मोपेड से निकलते थे और में टैम्पो से। तीनों इसके आगे की यात्रा मोपेड से नहीं कर सकते थे। आगे मवैया की बड़ी चढ़ाई थी। तीनों सवारियों को बैठाकर इस चढ़ाई को पार करना उस मोपेड के लिए असंभव था।
अखबार के साथ-साथ साल 1996 में आर्ट्स कॉलेज में रवि वर्मा के ‘दीमक’ नाटक में हम दोनों ने साथ काम भी किया। यह विलायत जाफरी के ‘बढ़ते कदम’ के बाद दूसरा इनवायरलमेंटर थियेटर का नाटक था। एक पत्रकार और ग्रामीण के किरदार में उन्होंने खूब वाहवाही लूटी थी।
विद्यार्थी जी जब सीतापुर गए तो मुलाकातें कम हो गईं। सीतापुर से वह पटना और रांची भी गए। इसके बाद उनसे संपर्क नहीं हो सका। कई बार खोज-खबर लेने की कोशिश की पर सफलता नहीं मिली। कुछ दिन पहले सिधौली के साथी अनुराग ने विद्यार्थी जी और उनकी पत्नी के साथ एक फोटो शेयर की और उनके इस दुनिया से कूच करने की खबर भी चस्पा की। इसके बाद के दु:ख को बयां नहीं कर सकता। विद्यार्थी जी जैसी हसमुंख, लिक्खाड़, संघर्षशील, हर हाल में खुश रहने वाली हस्ती से शायद ही कभी मेरी मुलाकात हुई हो।