5 जून को हम लोगों ने विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया है। यह एक अकाट्य सत्य है कि हम इंसानों के जीवन मे पर्यवरण की महत्वपूर्ण भूमिका है। जहां तक पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ “परि” जिसका अर्थ चारो ओर से है “आवरण” जो हमें चारों ओर से आच्छादित किये हुए या घेरे हुए है।
पर्यावरण के दायरे में वनस्पतियों, प्राणियों और मानव जाति से लेकर सभी निर्जीव और सजीव प्राणधारियों के मध्य भौतिक सम्बन्ध का परिसर शामिल है। वास्तव में पृथ्वी में व्याप्त पर्यावरण में जल, अग्नि, वायु, भूमि, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, से लेकर हम मानवों तक की विविध गतिविधियों के परिणाम स्वरूप इसमे सभी चीजों का समावेश हुआ हैं।
हमारे चारों ओर फैले वातावरण को हम भौतिक पर्यावरण कहते हैं जिसमे अनेको तरह के मनोहारी दृश्यों से लेकर हिम आच्छादित पहाड़ के आस पास फैले हरियाली अपने आँचल में अनेको तरह के जड़ी- बूटियों को समेटे हुये है। यह हरियाली से आच्छादित वातावरण की अनूठी मादकता इतनी मनमोहक है कि हम उन्हें पुनः पुनः यह अनुभव करने के लिए उसके आगोश में विलीन होने के लिए सदैव लालायित रहते हैं। मानव संस्कृति के विकास प्रक्रियाओं के कारण धीरे-धीरे ऐसे स्थान पर्यटन केंद्र के रूप में स्थापित हो गये है।
हमारे भारतीय संस्कृति में पर्यावरण को विशेष महत्त्व दिया गया है जिसके कारण प्राचीन काल से ही भारत में पर्यावरण को विविध स्वरूपों जैसे देवी, देवताओं के सादृश्य पूजनीय मानकर उनको सहेजे जाने का हम इंसानों द्वारा लगातर प्रयास होते रहे है। इसलिये हमारे पृथ्वी को “माता” का दर्जा प्राप्त है।
इसी प्रकार पर्यावरण के अनेक अन्य घटकों जैसे पीपल, तुलसी, वट वृक्षों को प्राचीन काल से आजतक भारतीय जनमानस ने उसे पवित्र मानकर श्रद्धा वश उसके आगे अपना शीश नवाते है। अग्नि, जल एवं वायु को तो वाकायदा देवता स्वरूप मानकर उन्हें आज तक पूजते चले आ रहे है। समुद्र, नदी, गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिंधु एवं सरस्वती आदि नदियों को शदियों से हम पवित्र मानकर जिसकी पूजा अर्चना करते चले आ रहे है आज उसी पर्यावरण के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करते चले जाने से पृथ्वी पर ऐसी भयाभव स्थिति उत्पन्न हो गयी है कि हम मनुष्यों का श्वास लेना भी दूभर हो गया है। हमारे भारतीय संस्कृति में हमारे पूर्वजों द्वारा पशु पक्षियों से लेकर नदी झीलों तक को सहेज कर उन्हें आदर करने का पाठ पढ़ाया गया है।
आज सम्पूर्ण विश्व मे चौतरफा पर्यावरण में मानव हस्तक्षेप के कारण अब इसके दो प्रखण्डों में विभाजित हो गये हैं जिनमे से प्रथम- प्राकृतिक या नैसर्गिक पर्यावरण।
मानव निर्मित पर्यावरण: हालाँकि पूर्ण रूप से शुद्ध प्राकृतिक पर्यावरण (जिसमें मानव हस्तक्षेप तनिक मात्र न हुआ हो) या पूर्ण रूप से मनुष्यों द्वारा निर्मित पर्यावरण (जिसमें सब कुछ मनुष्य द्वारा निर्मित हो), कहीं नहीं पाया जा सकता है। यह विभाजन प्राकृतिक प्रक्रियाओं और दशाओं में मानव हस्तक्षेप की मात्रा की अधिकता और न्यूनतम न्यूनतम का द्योतक मात्र है।
मानव द्वारा तकनीकी, आर्थिक उद्देश्य और जीवन में विलासिता के लक्ष्यों की पूर्ति हेतु प्रकृति के साथ व्यापक रूप से छेड़छाड़ किये जाने से के प्राकृतिक पर्यावरण का ही संतुलन को नष्ट हो चुका है।
आज हम मानवों के सामने अनेको तरह की पर्यावरणीय समस्याएँ विकराल रूप लिए कड़ी हैं जैसे प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन इत्यादि, यदि हम अगर अब भी सचेत हो जाएँ तो पृथ्वी फिर से अपने स्वच्छ रूप में आ सकती है। इसके लिए हमें अपनी जीवनशैली के विषय में पुनर्विचार करने की बेहद जरुरत हैं।
- प्रस्तुति: जी के चक्रवर्ती