जगदीश गांधी
प्रत्येक बालक (अ) पवित्र (ब) दयालु तथा (स) प्रकाशित हृदय तीनों ईश्वरीय गुणों को लेकर इस संसार में पैदा होता है। इस प्रकार प्रत्येक बालक की आत्मा जन्म से ही पवित्र और अकलुषित होती है और शुद्ध, दयालु तथा ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित होने के कारण बालक जन्म के समय से ही परमात्मा के अनन्त साम्राज्य का मालिक होता है। यदि बाल्यावस्था से बच्चों के संस्कार तथा आचरण में इन गुणों को विकसित करने के स्थान पर धूमिल करने का प्रयास माता-पिता, समाज तथा स्कूल द्वारा किया जायेगा तो यह बालक की आध्यात्मिक मृत्यु के समान है। इसलिए परिवार, समाज तथा स्कूल का वातावरण भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक गुणों के विकास के अनुकूल होना चाहिए।
बालक की तीन वास्तविकतायें होती हैं :
जब से परमात्मा ने यह सृष्टि और मानव प्राणी बनाये तब से परमात्मा ने उसे उसकी तीन वास्तविकताओं (1) भौतिक (2) सामाजिक तथा (3) आध्यात्मिक के साथ उसे एक संतुलित प्राणी के रूप में निर्मित किया है। अतः घर-विद्यालयों द्वारा बालकों को (1) भौतिक, (2) मानवीय एवं (3) आध्यात्मिक तीनों प्रकार की शिक्षाओं का संतुलित ज्ञान कराना चाहिए किन्तु यदि घर-विद्यालय बालक को तीनों प्रकार की संतुलित शिक्षा देने के बजाय केवल भौतिक शिक्षा देने तक ही अपने को सीमित कर ले और उसे मानवीय और आध्यात्मिक ज्ञान न दे तब बालक का केवल एकांगी विकास ही हो पाएगा और संतुलित ज्ञान के अभाव में बालक निपट भौतिक और असंतुलित प्राणी बन जायेगा।
स्कूल, परिवार तथा समाज का वातावरण ईश्वरीय बनाने की जरूरत:
परिवार में मां की कोख, गोद तथा घर का आंगन बालक की प्रथम पाठशाला है। परिवार में सबसे पहले बालक को ज्ञान देने का उत्तरदायित्व माता-पिता का है। माता-पिता बच्चों को उनके बाल्यावस्था में शिक्षित करके उन्हें अच्छे तथा बुरे अथवा ईश्वरीय और अनिश्वरीय का ज्ञान कराते हैं। बालक परिवार में आंखों से जैसा देखता है तथा कानों से जैसा सुनता है वैसा बालक के अवचेतन मन में धारणा बनती जाती हैं। बालक की वैसी सोच तथा चिन्तन बनता जाता है। बालक की सोच आगे चलकर कार्य रूप में परिवर्तित होती है। परिवार में एकता व प्रेम या कलह, माता-पिता का आपसी नजदीकियां या आपस का सदव्यवहार या दुर्व्यवहार, माता-पिता में आपसी दूरियाँ, अच्छा व्यवहार या बुरा व्यवहार जैसा बालक देखता है वैसा उसके संस्कार ढलना शुरू हो जाते हैं। वास्तव में आज के सामाजिक पतन के लिए हम किसी एक पर दोष नहीं लगा सकते बल्कि ये हर किसी की सामाजिक एवं नैतिक जिम्मेदारी है कि वह स्कूल, परिवार तथा समाज को ईश्वरीय बनाये।
बच्चों के जीवन को ज्ञान और आध्यात्मिक प्रकाश से प्रकाशित करें :
हमारा हृदय परमात्मा से जुड़ा हुआ तथा ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित होना चाहिए। इसलिए प्रत्येक माता-पिता तथा टीचर्स को प्रत्येक बालक को हृदय की पवित्रता तथा प्रभु-प्रेम को सिखाना चाहिए इससे बालक का जीवन आध्यात्मिक प्रकाश से भर जायेगा और यह बालक सारे संसार में प्रभु प्रेम को फैलायेगा। वास्तव में ईश्वर को हम भले ही न देख पाएं, लेकिन ईश्वर हर क्षण हमें देख रहा होता है और जब हम ईश्वर भक्त हो जाते हैं, ईश्वर की शिक्षाओं को अपने जीवन में धारण कर लेते है तो ईश्वर प्रत्येक क्षण हमारी सहायता करता है। अतः परिवार और स्कूल को मिलकर प्रत्येक बालक को ईश्वर भक्त बनाना चाहिए।
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Today, I went to the beach with my children. I found a sea shell and gave it to my 4
year old daughter and said “You can hear the ocean if you put this to your ear.” She put the shell to her ear and screamed.
There was a hermit crab inside and it pinched her ear. She never wants to go
back! LoL I know this is entirely off topic but I had to tell someone!