आशा शैली
आज के दौर में सारा संसार बाजारवाद की चपेट में है। हर ओर हाय पैसा का शोर सुनाई देता है। यह सच है कि इधर देश हमारा अराजकता से घिरा हुआ है और उधर सीमाओं पर हर रोज आतंक बढ़ रहा है। अभी तक तो हम पाकिस्तानी आतंक से जूझ रहे थे परन्तु अब चीन भी उसमें शामिल हो गया है। हालांकि पूर्व विदित है कि चीन, पाकिस्तान को हर तरह से सम्बल दे रहा है फिर भी अभी तक वह जो कर रहा था गुपचुप कर रहा था। इधर कुछ समय से चीन की हरकतें देश की सहनशक्ति को चुनौती देने लगी हैं, जबकि चीन का बेहिसाब धन भारत में लगा हुआ है। इस सारे प्रकरण में आम आदमी की भूमिका असमंजस की है।
चीन की विस्तारवाद की नीति साफ दिखाई दे रही है कि वह धीरे-धीरे अपनी सीमाओं का विस्तार करना चाहता ही नहीं करता जा रहा है। ऐसे में हर ओर से चीनी सामान के बहिष्कार की आवाजें उठ रही हैं। क्योंकि विश्व पटल पर भारत सबसे बड़ी मण्डी सिद्ध होता है अतः चीन को सबसे अधिक लाभ अपना माल भारत भेजने से ही होता है। अब यदि भारतीय जनता चीन द्वारा निर्मित माल खरीदना बंद कर देती है तो यह चीन की कमर ताड़ने के लिए पर्याप्त होगा। पर क्या ऐसा सम्भव है? यहाँ प्रश्न यह भी है कि क्यों नहीं भारत सरकार आयात पर प्रतिबंध लगाती। तो आइए तनिक भारत-चीन समझौतों पर नज़र डालें।
यहाँ यह समझना होगा कि जिस तरह जापान ने स्वयं को दोबारा से स्थापित करने के लिए उद्योगों का सहारा लिया था, इसी प्रकार चीन भी अपनी आर्थिक दशा सुधारने के लिए उद्योगों का सहारा ले रहा है। वह बहुत सस्ता और कम लागत में बनने वाला सामान बना रहा है विशेषतौर पर विद्युत उपकरण। हालांकि इन के स्थायित्व की कोई गारंटी नहीं है, फिर भी चीन को उसकी लागत से कई गुना अधिक धन इन उद्योगों से मिल रहा है। वह अपना हल्का और घटिया माल पूरे विश्व में फैला चुका है और लगातार फैला रहा है।
यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना अपना कर्तव्य समझती हूँ कि मैं कोई अर्थनीति विशेषज्ञ नहीं, मात्र एक साधारण नागरिक के नाते अपनी जानकारियाँ ही साझा कर पाऊँगी। तो पहले यह देखते हैं कि हमारे देश की स्थिति इस विषय में क्या है।
भारत-चीन के व्यापारिक सम्बंध काफ़ी पुराने हैं। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने 29 अप्रैल 1954 में एक समझौता चीन से किया था, जिसे पंचशील समझौते का नाम दिया गया। परन्तु इससे पूर्व भी ईस्वी सन् 1904 में, एंग्लो-तिब्बत संधि के नाम से एक समझौता हुआ था जो पंचशील के समय रद्द हो गया। भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बौद्ध भिक्षुओं का व्यवहार निर्धारित करने वाले पाँच निषेधों की तर्ज पर पाँच नियम बनाकर इस समझौते का नाम पंचशील रखा, ये नियम इस प्रकार थे, (1) सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना, (2) दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, (3) दूसरे देश पर आक्रमण न करना। (4) परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढ़ावा देना, (5) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना।
चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री चाऊ एन लाई ने 25 जून 1954 को भारत की राजकीय यात्रा के अवसर पर एक संयुक्त विज्ञप्ति में घोषणा की, कि वे पंचशील के इन पाँच सिद्धांतों का परिपालन करेंगे। परन्तु 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण से इस संधि का आधार हिल गया। भरतीय जनमानस में चीन की छवि विश्वासघाती और वादे से मुकरने वाले देश की बन चुकी थी। परन्तु वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने एक प्रयास फिर किया। पीएम मोदी ने चीन के प्रधानमंत्री ली कछ्यांग के साथ प्रतिनिधि स्तर की बातचीत की। बातचीत में सीमा विवाद, नदी के पानी के बंटवारे, स्टेपल्ड वीजा जारी करने और व्यापार घाटा जैसे सभी विवादास्पद मुद्दे उठाए और तय हुआ कि दोनों देश रेलवे, व्यापार, मैरीटाइम और समुद्र विज्ञान, अंतरिक्ष, टूरिज्म और ब्रॉडकास्ट जैसे क्षेत्रों में एक दूसरे का सहयोग करेंगे। भारत और चीन दोनों ने 10 बिलियन डॉलर यानि 63 हजार करोड़ रुपए के 24 समझौतों पर हस्ताक्षर किए। यानि एक बार फिर चीन पर विश्वास किया गया, परन्तु नतीजा सब के सामने है।
आज जब हर तरफ से शोर उठ रहा है कि जनता चीन द्वारा बनाए गए सामान का बाहिष्कार करे। जनता को राष्ट्र के प्रति उसका कर्तव्य याद कराया जा रहा है। चलो, मान लेते हैं कि जनता इन सामानों का बहिष्कार कर लेती है बल्कि कर भी रही है, तो इस बात की क्या गारंटी है कि हमारे नेता फिर से कोई समझौता नहीं करेंगे? क्यों नहीं वे समझौते रद्द किए जाते जो देश को कमजोर करते हैं। हाँ यदि जनाता ठान लेती है कि वह चीन का बना घटिया सामान नहीं खरीदेगी तो चीन की अर्थ-व्यवस्था को जबरदस्त धक्का लगेगा। क्योंकि भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है। परन्तु इस स्थिति में नेताओं को भी उनका साथ देना ही पड़ेगा। उन्हें किसी भी कीमत पर, किसी भी दबाव के आगे न झुक कर चीन से सारे व्यापारिक सम्बंध तोड़ लेने पड़ेंगे। अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना पड़ेगा।
वैसे भी चीनी सामान खरीदने से आम आदमी को बस तात्कालिक राहत के अलावा तो कोई लाभ नहीं। क्योंकि चीनी सामान की पायदारी की कोई गारंटी नहीं। चीनी व्यापारी इतना चालाक है कि भारत में उपयोग में लाई जाने वाली हर वस्तु का निर्माण कर रहा हैं। भारतीय देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बना रहा है। शायद यह व्यापारी यह भी जानता है कि भारतीय कभी एक मत नहीं हो सकते। मुण्डे-मुण्डे मति भिन्ना के अनुसार। इसी बात का चीन लाभ उठा रहा है। आज आम नागरिक असमंजस की स्थिति में है। जनता सोचती है कि देश भक्ति का ठेका क्या जनता ने ले रखा है। नेताओं के घरों में जहाँ उनके अपने उपयोग की बात होती है, वहाँ वे भले ही मंहगी वस्तुएँ खरीदें (वह भी निज हित में देश हित में नहीं) पर जहाँ किसी दूसरे ही नहीं आम जनता को कुछ देने की बात होती है वहाँ वही चीन-निमर्मित सामान खरीदा जाता है। आज भी वही सस्ती चीजें खरीदी जा रही हैं।
कुछ दिन पूर्व एक साहित्यिक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। वहाँ पर आई मुख्य अतिथि एक वर्तमान मंत्री की पत्नि, साहित्यकारों को देने के लिए उपहार भी लाई थीं। साहित्यकार भी मंत्री जी की पत्नी के हाथ से उपहार लेकर प्रसन्न थे (न लेते तो क्या करते? मंच की मर्यादा थी)। घर आकर पैकेट खोलने पर देखा, गणपति की मेड इन चाइना मूर्ति मेरा मुँह चिढ़ा रही थी।