अविनाश मिश्र
पहली पुस्तक (2017) पर साहित्य अकादेमी के मुलाज़िमों का कहना है कि उनके पास पर्याप्त स्टाफ़ नहीं है, इसलिए रॉयल्टी नहीं बन पा रही है।
दूसरी किताब (2018) पर वाणी प्रकाशन ने अग्रिम रॉयल्टी दी, लेकिन उसके बाद से अब तक कोई रॉयल्टी या रॉयल्टी-स्टेटमेंट प्राप्त नहीं हुआ है।
तीसरी किताब (2019) पर राजकमल प्रकाशन से अभी-अभी एक चेक मय रॉयल्टी-स्टेटमेंट प्राप्त हुआ है।
राशियों के ज़िक्र से यहाँ बच रहा हूँ, क्योंकि वे इतनी नहीं हैं कि सब कुछ छोड़-छाड़कर मसिजीवी हुआ जा सके। रॉयल्टी की राशि का किसके लिए कितना और क्या अर्थ है और वह कितनी किसके लिए सम्मानजनक है; यह सबकी अपनी-अपनी स्थिति, प्रतिभा और क्षमता पर निर्भर है।
हिंदी में प्रकाशन-संसार की संरचना जिस तरह निर्मित हुई है, उसमें चाहकर भी किसी चीज़ के पारदर्शी और नैतिक होने पर यक़ीन नहीं होता। रॉयल्टी-स्टेटमेंट यहाँ झूठ के पुलिंदे होते हैं—बहुत सारे मामलों में तो वे होते ही नहीं, सिर्फ़ मुँहज़ुबानी काम चलता और चलता चला जाता है। इस प्रकार एक पुस्तक से बाहर का पुस्तक-संसार बनता है—अपराध, छल और भ्रम से संचालित, सुनियोजित और सुगतिशील।
यह स्थिति कितनी भयावह है, इसे इससे समझिए कि मेरे पास तो मेरी तीनों पुस्तकों के अनुबंध-पत्र हैं, लेकिन मेरे बहुत सारे समकालीन एक या एकाधिक किताबें आ जाने के बावजूद यह कहने की स्थिति में नहीं हैं। पाठ और समझ दोनों से ही परे एक ऐसा अनुबंध-पत्र जिसे अँग्रेज़ी में एक जटिल और क़ानूनी भाषा में लिखा गया है और जिसके मूल में हिंदी लेखक को बँधुआ मज़दूर बनाने का विचार निहित है, पा लेना भी जब सामान्य नहीं है, तब ऐसे में उन्हें कितनी रॉयल्टी मिलती है, मिलेगी या कब तक मिलेगी… वे आख़िर क्या बताएँ!
रॉयल्टी से होता क्या है या क्या हो सकता है या क्या हो जाएगा, हिंदी लेखक अपनी शुरुआत से ही इस तरफ़ से बेख़ुद, अनजान और नाउम्मीद नज़र आते हैं। इस चित्र में प्रकाशक अपनी मनमर्ज़ियों के रंग भरते हैं और बीच बाज़ार बैठ यह कहते हैं कि आजकल पढ़ने वाले बहुत कम हो गए हैं। यह कहते हुए उनके चेहरे की चमक और उदर का आकार बढ़ता जाता है, उनके घर, उनके दफ़्तर, उनके नौकर, उनके वाहन, उनके आयोजन बढ़ते जाते हैं। उनके लेखक भी बढ़ते जाते हैं, लेकिन इस निरंतर विस्तार में एक भी ऐसा लेखक नज़र नहीं आता जो साहित्य लिखकर जीवित हो या साहित्य लिखकर संपन्न हुआ हो।
हिंदी साहित्य के सशक्त और उज्ज्वल हस्ताक्षरों पर नज़र डालिए और इस सिलसिले से संबद्ध उनके अनुभवों को परस्पर मिलाइए, एक ऐसा रसायन तैयार होगा जिसके आगे नई कविता और नई कहानी के दौर का ‘भोगा हुआ यथार्थ’ और ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ दोनों ही मात हो जाए।
इन अनुभवों को रॉयल्टी ही नहीं, किताब छपवाने की प्रक्रिया से भी जोड़कर देखिए; यह मात और गंभीर दिखाई देगी। इतनी बोझिल, बोर, तकलीफ़देह, संशयग्रस्त और बेवक़ूफ़ियों से भरी, आत्म-सम्मान छीन लेने वाली संसार में कोई दूसरी प्रक्रिया नहीं है। इसमें कोई सुख नहीं है, अगर है तो हमने जाना नहीं है। संभवतः उन्होंने जाना हो जो सत्ता-संरचना और शक्ति-स्थलों से संबद्ध हैं या उन्हें प्रभावित करने की तिकड़मी हैसियत रखते हैं। वे जो यह हैसियत नहीं रखते, अपने लेखन के शुरुआती दिनों में जिस महान् उत्साह और संकल्प से भरे होते हैं, इस वातावरण में/से घिरकर धीरे-धीरे खोखले और प्रभावशून्य होते जाते हैं।
इस सत्य से साक्षात्कार के लिए अतीत को वर्तमान से अलग नहीं किया जा सकता, जहाँ दुर्दिनों से ग्रस्त हिंदी के दरिद्र लेखकों का व्यक्तित्व एक घने अँधेरे में झिलमिला रहा है; जहाँ लेखकों को रॉयल्टी साल में एक दफ़ा नहीं मिलती, तब मिलती है जब उन्हें लड़कियों की शादी करनी होती है, घर ख़रीदने या बनवाने होते हैं या जब उन्हें दिल का दौरा पड़ता है या जब वे ख़ून की उल्टियाँ करने लगते हैं या जब वे कैंसरग्रस्त हो जाते हैं या जब उनके न रहने की ख़बर आ जाती है…।
ये सब चालू और घिसे हुए मुहावरे हैं कि लेखक अपने रक्त से रचता है, वह अपनी रचना को अपनी संतान की तरह आकार देता है; लेकिन क्या किया जाए अगर चमक ने हमें कुछ ख़ास नहीं दिया और चालू और घिसे हुए मुहावरे ही सचाई सँभाले हुए हैं।
तब इसी मुहावरे में अपने रक्त से रची संतति को लेकर एक लेखक प्रकाशक के पास जाता है कि वह इसे प्रकाशित करे। प्रकाशक इस संतति में निवेश करता है, पास खड़ी प्रकाशक की संतानें शोषण की अनंत संभावनाओं से समृद्ध इस निवेश के दीर्घकालिक लाभ को पहचानती हैं और क़सम खाती हैं—दूसरे धंधे में न जाने की।
पिछले तीन अनुच्छेदों से सोच रहा हूँ कि इस प्रकरण को यहीं विराम दूँ, लेकिन लिखना रुक ही नहीं रहा। हम एक मूर्ख वर्चस्व और गंभीर संकट से घिरे हुए हैं। अज्ञान और अन्याय के अँधेरे गहरे होते जा रहे हैं, ऐसे में पापाचरण पर टिका ज्ञान का यह कारोबार भी डगमगाएगा ही, क्योंकि इसका व्यवहार भी सत्ता जैसा ही है—आपदा में भी अवसर खोज लेने का। फ़िलहाल बहुत सारे प्रश्न हैं, उत्तर एक भी नहीं। इन बहुत सारे प्रश्नों में ही एक प्रश्न रॉयल्टी का भी है। चक्रव्यूह या कहें दुश्चक्र इस तरह गढ़ा गया है कि इस प्रश्न को करने की धृष्टता हिंदी में अब तक कम ही हुई है। लेकिन जब तक एक भी धृष्टता नज़र आ रही है, उत्तर पाने की विकलता और संभावना समाप्त नहीं होगी।