जी के चक्रवर्ती
यूक्रेन और रूस के मध्य पिछले 14 दिनों से लगातार युद्ध जारी है। अभी तक के इस युद्ध की बात करें तो इस लड़ाई में पहला प्रश्न यह उठाता है कि रूस युक्रेन के साथ इतने दिनों से युद्ध करते रहने का क्या कारण है? वैसे यदि सच कहा जाये तो युक्रेन को घुटने में लाने के लिये रूस के लिये मात्र तीन दिनों तक का समय ही पर्याप्त था लेकिन इतने दिनों तक का समय लगने के पीछे के कारणों को देखा जाय तो यह समझ मे आता है कि रूस की मनसा यह है कि इस युद्ध में लोगों की जान-माल का कम से कम क्षति हो, रूस ने अभी तक के युद्ध मे अपने हवाई हमलों का वास्तविक प्रहार कम से कम करने की कोशिश की है।
जहां तक यूक्रेन के कूटनीतिक फैसलों की बात करें तो युक्रेन हमेशा से पाकिस्तान का पक्षधर रहा है लेकिन आज वह भारत से गुजारिश करता फिर रहा है कि भारत रूस से कह कर युद्ध रुकवा दे लेकिन शायद जेलेंस्की को अभी तक यह नही समझ आ रहा था कि जब तीन देशों द्वारा भी पुतिन को युद्ध जारी रखने से रोका न जा सका तो भारत ऐसा क्यों करेगा? जबकि उसे इस युद्व का परोक्ष -रूप से लाभ ही मिल सकता हैं लेकिन आज भारत एक समय पाकिस्तान का पक्ष लेने वाले यूक्रेन को मानवीय सहायता भेजने में लगा हुआ है।
युक्रेन और रूस के बीच लड़े जा रहे इस युद्ध से एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि युद्ध में दुश्मन के सामने टिके रह कर उसे जंग में तभी हराया जा सकता है जब हमारे पास अर्थ बल के साथ ही साथ अच्छी सेना और पर्याप्त मात्रा में हथियार सामग्रियां उपलब्ध हों यानिकि हम अपने बलबूते ही किसी अन्य देश से युद्ध जीत सकते है नकि उधर या दूसरे के सैनिक व हथियारों के भरोसे, किसी देश को युद्ध मे कैसे हराया जा सकता है शायद यह बात आज जेलेन्सकी की समझ मे अच्छी तरह आ चुकी होगी क्योंकि अभी तक लगातार 14 दिनों से इस जंग में युक्रेन को अमेरिका और नाटों देशों की तरफ से सैनिक हो चाहे अत्याधुनिक हथियारों की मदद सार्वजनिक तौर पर भले नही मिली हो लेकिन अमेरिका युक्रेन में चोरी छुपे बंदरगाहों से उसे हथियारों की कई खेप पहुंचा चुका है और उन्ही हथियारों के बल पर वह अभी तक इस युद्ध मे टिका हुआ है जिससे यह युद्ध और लम्बा खिंचता चला जा रहा है।
इस युद्ध मे एक बात तो निश्चित है कि यहां के वायुमंडल में कोहरे जैसा धुंध छा जाने से लोगों को आगे का रास्ता तक देखना मुश्किल हो रहा है और बहुत से नागरिक यहां से पलायन कर पड़ोसी देशों में शरणार्थि बनने को मजबूर हुये हैं।
आज के यूक्रेन को देखकर ऐसा नही लगता है कि कभी सुसज्जित सुंदर दिखने वाला यह देश की इतनी बड़ी दुर्दशा होकर वीरान शमशान में परिवर्तित हो चुकी है। जहां तक युक्रेन के राष्ट्रपती जेलेन्सकी की बात की जाये तो वह बार-बार नाटो एवं अमेरिका से हथियार की मांग दोहराता देखा जा रहा था लेकिन रूस के लगातार प्रहार से अब जेलेन्सकी बुरी तरह टूट कर रूस के सभी शर्तों की मानने के लिये तैयार है। अब यहां एक और प्रश्न उठता है कि यदि अमेरिका और नाटों देशों ने युक्रेन को लड़ाकू विमान और अत्याधुनिक हथियार दे भी देता तो क्या यूक्रेनी सेना उसे युद्ध मे प्रयोग कर पायेगी क्योंकि ऐसे में उसके सैनिकों को उन हथियारो को चलाने का प्रशिक्षण लेना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में रूस द्वारा पहले ही यह बात कहा जा चुका है कि यदि किसी तीसरे देश ने इस युद्ध मे हस्ताक्षेप करने की कोशिश कि तो यह बात स्वयं उस देश और युक्रेन दोनों के लिये इसके परिणाम बेहद खतरनाक होंगे और आज उसके अनुसार यह युद्ध धीरे-धीरे और लम्बा खिंचता हुआ दिख रहा है।
वहीं अगर पुतिन की बात करें तो वे पश्चिमी देशों द्वारा यूक्रेन को हथियार दिये जाने वाली बात को एक उकसावे की ही तरह मान सकते हैं, क्योंकि यह युद्ध अमेरिका द्वारा युक्रेन को पानी पर चढ़ाने का ही फल है। अब यहां यह भी प्रश्न उठता है कि ऐसी अवस्था मे क्या कोई देश इस युद्ध के बीच कूदेगा यदि कोई कूदता भी है तो फिर विश्व युद्ध शुरू होने की संभावना से इनकार नही किया जा सकता है। वैसे रूस किसी भी हालत में परमाणु युद्ध नही करना चाहेगा कियूंकि रूस परमाणु युद्ध की विभीषिका को अच्छी तरह जानता और इससे पड़ने वाले प्रभावों से भी अच्छी तरह सचेत है।
यदि रूस और युक्रेन के मध्य का यह युद्ध लम्बे समय तक चला तो इतने बड़े इलाक़े में लगातार सेना भेजते रहने में उसे परेशानी आ सकती है तो वहीं पश्चिमी देश यूक्रेन को लगातार हथियार देते रहेंगे तो फिर शायद कई वर्ष बाद, संभवतः रूस में नये नेतृत्व के आने पर ही रूस की सेना यूक्रेन छोड़कर चली जाए, यह स्थिति ठीक वैसा ही होगा जैसा कि अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ सेना ने वापसी की थीं। वर्ष1979 से लेकर वर्ष1989 दस वर्षों तक सोवियत संघ अफ़ग़ान विद्रोहियों के साथ लड़ाई लड़ते रहने के बाद यहां से सोवियत सेना की क्रमबद्ध वापसी का क्रम 15 मई वर्ष1989 से शुरू हुआ था जिसका अंतिम रूप मिखाइल गोर्बाचेव के नेतृत्व वाली सरकार के कार्य काल में 25 फरवरी वर्ष 1989 में खत्म हुआ था।
वैसे आज के परिदृश्यो में को देखें तो शक्ति देश अपने हथियारों को बेचने के लिये दो देशों को आपस मे भिड़ा कर उस देश के निरहि लोगों को युद्ध की आग में झोंकने कहाँ तक उचित है? ऐसे में शायद यह कहना गलत नही होगा कि किसी दूसरे देश के उकसावे में आ कर यदि कोई देश किसी भी तरह के युद्ध मे शामिल होता है या करता है तो यह स्वयं उस देश के अतिरिक्त अन्य देश के लिये भी उतना ही कष्ट दायक होगा और आगे वर्षो-वर्ष तक इसके दुष्परिणामों को झेलने के लिये मानव विवश होंगे।