किसी जंगल में एक कुटिया में एक साधु रहते थे। आसपास बड़ा रमणीक स्थान था। पास में नदी बहती थी। घना वन था। पक्षी कलरव करते थे। ‘जंगल में मंगल’ की कहावत चरितार्थ होती थी।
एक दिन कुछ लोग वहां आये। वे आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। इधर-उधर देख रहे थे। साधु ने उन पर एक निगाह डाली और अपने काम में लग गये। कुछ दिन बीतते-बीतते वे लोग फिर आ गये। इस बार वे अपने साथ बहुत-सा सामान लाये थे।
साधु ने यह सब देखा, पर माजरा क्या है, उनकी समझ में नहीं आया। अगले दिन उन्होंने देखा, पेड़ों पर कुल्हाड़ी चल रही है। साधु का हृदय वेदना से भर उठा। वृक्ष तो उनके जीवन के अंग थे। उनके विशाल परिवार के सदस्य थे। उन्होंने उन लोगों को बड़े प्यार से समझाया, फिर भी वे नहीं माने तो उन्होंने क्रोधित होकर कहा, “तुम्हारी कुल्हाड़ी पेड़ों पर नहीं, लोगों के दिलों पर चल रही है। अरे, हत्यारों, तुम्हारी इस हरकत से धरती वीरान हो जायेगी। तुम्हें शाप देगी। उसके शाप से तुम तो मरोगे ही, तुम्हारे साथ न जाने कितने मासूम लोगों की भी हत्या होगी। अभी भी समय है, मान जाओ और नीचता छोड़ दो।” पर वे कहां मानने वाले थे!
स्वार्थ ने उनके विवेक पर पर्दा डाल दिया था। बेचारे साधू को इतना सदमा पहुंचा कि वे बिस्तर पर पड़ गये और कुछ ही समय में उनके प्राण पखेरू उड़ गये। धरती वृक्ष-विहीन हो गई। प्रकृति बड़ी क्षमाशील है, पर जब कोई हद से ज्यादा सताता है, तो वह बदला लिये बिना नहीं मानती। उस वर्ष भयंकर सूखा पड़ा। मेघ आये, किन्तु उनका स्वागत करने वाले वृक्ष तो रहे नहीं थे। वे चुपचाप आगे बढ़ गये। प्रकृति के इस प्रकोप से वहां मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी बड़ी संख्या में चल बसे।
मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थ ने जो तबाही की, उसका दुष्परिणाम आज भी उस क्षेत्र के ही नहीं, दूर-दूर तक के लोग भुगत रहते हैं। उन्होंने अपने देवता-स्वरूप साधु की एक प्रतिमा नदी के किनारे लगवा दी है, जो हर घड़ी कहती रहती है, “जीवन के लिए वृक्ष वरदान हैं। उन्हें नष्ट करना अपने को नष्ट करना है।”