दोनों तरफ से माथे पर तनी रहती बंदूक, कैसे बताएंगे सच
उपेन्द्र नाथ राय
लाल आतंक कहें या माओवाद, उनके हार्डकोर संगठन वीर जनमुक्ति गुरिल्ला सेना अर्थात पीएलजीए आज 22 वर्ष का हो गया। इसको यूं भी कह सकते हैं कि दरिंदगी की हदें 22 साल से चल रही हैं। हर साल माओवादी पीएलजीए के गठन को यादगार बनाने के लिए दो दिसम्बर से आठ दिसम्बर तक पीएलजीए सप्ताह मनाते हैं। अपने प्रभावित क्षेत्रों में पर्चा फेंक दिये, बस चारों तरफ सन्नाटा। आतंक के साए में जी रहे लोग इनके हर हुकुम के आगे अपना सिर झुकाने को मजबूर हो जाते हैं। हालांकि हमारे बहादुर सैनिकों ने बहुत हद तक इनको नियंत्रित कर दिया है। इनकी कमर टूट चुकी है, लेकिन अब भी इनकी कायराना हरक्कत सभी को कभी-कभी चकित कर देती है।
माओवादियों का आतंक और समस्या आतंकवादियों की अपेक्षा जटिल है। इसे समझने की जरूरत है। यह भी सत्य है कि माओवाद समाप्त करने के लिए केन्द्रीय फोर्स और स्थानीय पुलिस बल मलेरिया की दवा कोनैन के समान है, जो रोग होने पर उससे निदान के काम तो आती है, लेकिन मलेरिया बुखार न हो, इसके लिए जरूरी है कि मच्छरों को ही समूल नष्ट कर दिया जाय।
यह भी सत्य है कि केन्द्रीय फोर्स और स्थानीय पुलिस ने इस समय माओवादियों की कमर तोड़ दी है, लेकिन फिर यह भी मानना पड़ेगा कि उस विचारधारा को पनपने से रोकने के लिए बहुत सारे कदम उठाने की जरूरत है। लाल सलाम करने वालों की स्थिति इस समय कैसी है, यह उनके द्वारा ही सात नवम्बर को जारी किये गये एक 27 पेज के पत्र से जाहिर होता है, जिसमें लिखा है कि 11 महीनों के अंदर (दिसम्बर 2021 से नवंबर 2022 तक) देशभर में 132 माओवादी मारे गये। इसमें सबसे अधिक कामरेड 89 दंडकारंय क्षेत्र में मारे गये हैं (बस्तर संभाग व छत्तीसगढ़ के बार्डर महाराष्ट्र और तेलंगाना के बार्डर को मिलाकर माओवादियों ने एक डिविजन दंडकारंय के नाम से बनाया है।)।
इसके अलावा उस पत्र में दिया है कि एक माओवादी सेंट्रल रीजनल बल से, बिहार-झारखंड में 17, पश्चिम बंग में एक, तेलंगाना में 15, आंध्र प्रदेश में एक, ओडिशा में तीन कामरेड, पश्चिम घाटियों में एक कामरेड, महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में तीन कामरेड 11 माह के भीतर मारे गये हैं। इसमें केंद्रीय कमेटी के सदस्य दीपक को बचाने में ही 27 माओवादी पारेवा मुठभेड़ में मार दिये गये थे। माओवादियों के समूल नाश के लिए केन्द्र सरकार ने मई 2017 में पांच वर्ष की समय सीमा रखकर केन्द्र सरकार ने समाधान योजना प्रारंभ किया था।
इस पत्र में ही लिखा है कि माओवादियों (2017 से) ने इस दौरान पूरे भारत में 1300 से अधिक गुरिल्ला कार्रवाई की। इसके माध्यम से पांच सालों में 429 जवान शहीद हो गये। वहीं 966 जवान घायल हुए। इस दौरान 40 लोगों को माओवादियों ने मार डाला। यही नहीं 409 जन सामान्य की भी नृशंस हत्या कर दी। उसमें से ज्यादातर आदिवासी समाज से ही हैं। 300 जगहों पर संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। एक साल में देखा जाय तो माओवादियों ने 200 आतंक फैलाने का काम किया। इसमें 31 जवान शहीद हुए। वहीं 154 जवान घायल हुए। 69 सामान्य लोगों को माओवादियों ने मार डाला।
मच्छर रुपी माओवाद की समस्या को मूल जड़ से समाप्त करने के लिए सरकार को पहले स्थानीय स्थितियों को समझना होगा। इसके बाद वहां के स्थानीय लोगों से गहरी पैठ बनाने के लिए अपने स्थाई लोग रखने होंगे। अब वहां की समस्या के बारे आप इसी से समझ सकते हैं कि छत्तीसगढ़ का कांकेर जिले का आमाबेड़ा क्षेत्र जिला मुख्यालय से महज 15 किमी की दूरी पर है। उस क्षेत्र में आज भी ऐसे गांव हैं, जहां के लोग हिन्दी बोलना तो दूर छत्तीसगढ़ी भाषा भी नहीं बोल पाते। ऐसे में वे प्रशासनिक अधिकारियों से अपने दर्द को कैसे बयां कर सकते हैं। वहां ऐसे कई गांव हैं, जहां पर प्रशासन को पहुंचते 12 से 15 घंटे लग जाएंगे। वहां सिर्फ किसी तरह साइकिल या बाइक ही जा सकती है। प्रशासन की क्षमता अकेले जाने की नहीं होती। यदि पूरी फोर्स वहां पहुंचती है तो हर कदम पर खतरा मंडरा रहा होता है।
वहां पुलिस व माओवादियों में अंतर यह हो जाता है कि माओवादियों के सचिव स्तर के पदाधिकारी के लिए अनिवार्य योग्यता ही चार भाषाओं का ज्ञाता होना जरूरी है। एक जिस क्षेत्र में उसकी नियुक्ति है, उस क्षेत्र की स्थानीय भाषा के साथ ही हिंदी और अंग्रेजी की जानकारी भी चाहिए। स्थानीय भाषा के जानकार होने से वे स्थानीय लोगों के साथ आसानी से घुल-मिल जाते हैं। वहीं पुलिस को वहां के लोगों का दर्द समझने के लिए एक द्विभाषिया की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में पुलिस स्थानीय लोगों के साथ कैसे घुल-मिल सकती है।
हां, यह कहा जाता है कि जो दिखता है, वह हमेशा सच नहीं होता। यह बात माओवादी क्षेत्रों में सच साबित होती है। यही कारण है कि बाहर से उस क्षेत्र में जाकर विशेष खबर देने वाले पत्रकार भी कभी हकीकत को उजागर ठीक से नहीं कर पाते। इसका कारण है कि उनकी रिपोर्ट वहां के स्थानीय लोगों द्वारा बताने के आधार पर होती है। आप ऐसे ही सोच सकते हैं कि जो बंदूक की नोक पर हमेशा सांसे ले रहा हो, वह कैसे सच बता सकता है। हकीकत होती है कि यदि कोई रिपोर्टिंग करने गया तो वहीं सामान्य वेश में दस लोगों के बीच कोई माओवादी भी होता है।
उदाहरण के तौर पर आप उनसे पूछिये, क्या इस बीच माओवादी इस क्षेत्र में देखे गये हैं। उनका यही जवाब होगा, वर्षों से देखे नहीं गये, जबकि हकीकत है कि उस क्षेत्र में हर दिन आते-जाते रहते हैं। ऐसी ही तमाम मुद्दों पर वहां के स्थानीय लोगों से पत्रकार चर्चा करके आ जाते हैं और वहां की असली हकीकत से कभी रूबरू नहीं हो पाते। यदि आपको वहां के हकीकत से रूबरू होना है तो वहां आपको वर्षों गुजारने होंगे। किसी भी व्यक्ति की बातों पर नहीं, उनकी आंखों को देखकर, उनकी भावना को समझकर आपको वहां की हकीकत से रूबरू होना होगा।
माओवादी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के सामने एक तरफ खाईं है तो दूसरी तरफ पहाड़। दोनों के बीच हमेशा उनकी जिंदगी खतरे में पड़ी रहती है। यदि एक पुलिस वाला उनसे बात कर लेता है तो शक में माओवादी उन्हें मौत की घाट उतार देते हैं। कहते हैं, यह पुलिस का मुखबिर था। इधर पुलिस उन्हें हमेशा शक के दायरे में रखती है कि यह जनताना सरकार का सदस्य होगा और कई बार यह हकीकत भी होती है कि उन्हीं आम आदमियों के बीच माओवादियों का मुखबिर भी छिपा होता है, जिसे उस गांव के लोग भी नहीं जानते।
इसकी हकीकत का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि एक बार मैं छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले का माओवादियों से पूरी तरह प्रभावित सीतरम इलाके में गया था। वहां जाने के लिए एक नदी का पार करना पड़ता है। नदी पार करते ही माओवादियों के स्मारक दिखने लगे। वहां प्रवेश करते ही कुछ लोग ऐसी निगाह से देखने लगे कि ऐसा लगा मैं चारों तरफ से घिर चुका हूं। इसके बाद मैं अखबार से बताया तो हमें कुछ राहत मिली। चारों तरफ माओवादी संकेत के बावजूद किसी से पूछिए, यही बताता था कि यहां कोई माओवादियों के बारे में नहीं जानता। इधर कोई गतिविधि नहीं दिखती। एक साधारण सा दिखने वाले एक व्यक्ति से हमारी पूरी बात हुई, वह हमेशा यही कहता रहा कि यहां माओवादी आते ही नहीं, जबकि उस घटना के तीसरे दिन ही वही पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया।
यदि आतंकवादियों और माओवादियों की तुलना करें तो माओवादी आतंकवादियों की अपेक्षा ज्यादा घातक हैं। आतंकवादी तो पहचान में आ जाएंगे, क्योंकि वे हमेशा आमने-सामने की लड़ाई करते हैं, जबकि माओवादी हमेशा कायरों की भांति छिपकर गुरिल्ला युद्ध करते हैं। जब अकेले पाते हैं तो पीठ में छुरा भोंक कर चले जाते हैं। माओवादियों की पहचान करना भी बड़ा मुश्किल है। इस कारण इनसे लड़ाई इन्हीं की भाषा में ही की जा सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं। तीन साल तक माओवाद प्रभावित क्षेत्र में सक्रिय पत्रकारिता कर चुके हैं) मो. न.- 9452248330