नदी-1
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वेग से बह रही नदी
नीचे
उतर आयी है
गहरी थाह में
उसका शोर धीमा पड़ने लगा है
ठहरी-ठहरी-सी
बह रही है नदी
अंजुरी में उठाकर देखता हूं
इसका जल
कितना गाढ़ा-गाढ़ा, पका-पका-सा है
शहद के मानिंद
मुझे आज ही पता चला है कि
नदी पर बह रही गंध का अजनबीपन
मैं.. न जाने कब-से पी रहा था कि
पता नही कब
वह मेरी गंध हो चुकी थी और
मैं खुद में उसे सूंघ रहा हूं.
नदी-2
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नदी के किनारे-किनारे
धूप में जलते हैं जब-जब
पांव मेरे, और
राह की थकन कर देती है अवश मुझे
तब-तब कूद पड़ता हूं
‘छपाक’ से
बाहों में कसे नदी को और
धीमे-धीमे, नि:शब्द
चुपचाप मुझमें
बहने लगती है नदी
अपने में ढूंढते हुए..
अपने में पाते हुए मुझको.
आनंद अभिषेक