अंशुमाली रस्तोगी
मेरा प्रयास यही रहता है कि न किसी से आशीर्वाद लूं, न किसी को आशीर्वाद दूं। आशीर्वाद लेना और देना व्यक्ति को आलसी, खुशफहम और ऐंठवादी बनाता है। अमूमन, आशीर्वाद लगते-लगाते नहीं, केवल खानापूर्ति के काम आते हैं।
लेकिन समाज में ऐसे लोग बहुतायत में हैं, जिन्हें तब तलक चैन नहीं पड़ता, जब तलक दिनभर में वे आठ-दस आशीर्वाद दे न दें। और, कुछ ऐसे भी महापुरुष हैं, जो जबरन ही अपना सिर आशीर्वाद पाने के लिए आगे कर देते हैं।
ये आशीर्वाद देना, लेना, पाना और पैर छूना या छुआना सब गुजरे दौर की बातें हैं। इनमें कुछ न धारा। बाजार में ये ढोंग सिर्फ विज्ञापन के काम आते हैं। बाजार इन्हें अपने हिसाब से भूना ले जाते हैं। बाजार इतना चालू है कि वो कथित परंपराओं, ढकोसलों से भी पैसा कमाने का हौसला रखता है।
मैंने अपने जीवन में इस बात का खास खयाल रखा कि कभी कोई ऐसा काम न करूं कि अगला मुझे आशीर्वाद देने की जहमत फरमाए। हां, गालियों का दिल से स्वागत है। किंतु आशीर्वाद का ढोंग कतई नहीं चाहिए।
आशीर्वाद बाजार में खपने के लिए धांसू मटेरियल है।
1 Comment
Good info. Lucky me I found your site by chance (stumbleupon).
I have bookmarked it for later!