यूँ ही दिल को मैं क्यों भरमा रही हूँ
मैं किस उलझन में फंसती जा रही हूँ
भरम मेरी अकीदत का बना है
मैं खुद को खुद ही छलती जा रही हूँ
ये गंगा है तो मैली क्यों हुई है
मैं किसको आइना दिखला रही हूँ
तुम्हारे दर से खाली कौन लौटा
मैं झोली आस से फैला रही हूँ
लगा सावन महीना तू भी आ जा
तुझे इक बार और मना रही हूँ
– आशा शैली (उत्तराखण्ड)