एक लघुकथा
अस्त-व्यस्त साड़ी में लिपटी जब वो अपने घर पहुंची तो उसने अनुभव किया कि अब उसकी भावनायें कोरी हो गयीं है। उसकी डायरी में दर्ज पंक्तियों के शब्द अब नये मतलब गढ़ रहे थे। सुबह नाश्ता बनाते समय उसने गीत गुन-गुनाना बंद कर दिया था और बर्तनों को अब ज़्यादा देर तक साफ़ करने लगी थी। उसने अपने खिड़कियों से गमलों को उतार दिया था और उसके ड्रेसिंग टेबल के आईने पे धूल की एक पारदर्शी परत जम गयी थी।
अब वो रातों को अपने तकिये के नीचे एक सूनापन ले कर सोती थी और अल-सुबह उसकी पलकें भीगी रहने लगी थी। उन दिनों मैं कविताएं लिखा करता था। मेरे घर के आँगन में गुलमोहर के फूल झड़ते थे। बगीचे में तितलियों के सारे रंग बिखरे थे। गौरैया मेरे छत पे दाने चुंगती थी और मैं रातों को बेख़बर सोया करता था।
उस दिन जब वो मेरे बिस्तर पे अपना दिल छोड़ कर गयी थी, उस रात प्रेम के अकुलाहट में मैं अपने तकिये के नीचे उसका दिल रख कर सोया था। सारी रात उसके धड़कते दिल ने मुझे सोने न दिया।
सुबह आँगन खाली पड़ा था। बगीचे रंगहीन हो गये थे। छत पे एक सूनापन फैला था और मैं दुबारा रातों को कभी सो न पाया।
कुछ महीनों बाद उसका ख़त आया। अंत में उसने लिखा था..
“सुनो, सब कुछ जला देना..”
कहते है वो साल गोरखपुर का अब तक का सबसे ठंडा साल था। मैं तमाम ख़त, तोहफ़े के साथ उसका दिल भी ताप गया। ये सोच कर कि शायद उसके तकिये के नीचे का सूनापन भी किसी गर्म रात को उसके पसीने के साथ बह गया हो।
आँगन अब भी सूना था और बग़ीचे जैसे सदा के लिए रंगहीन हो गये थे। रातों को अब मैं शराब पीने लगा था।
कुछ दिनों बाद एक परिचित से ख़बर मिली।
“वह अब नहीं रही।”
तमाम गर्म कपड़े पहने होने के बावजूद मुझे जुकाम हो आया और मेरी नाक भर आयी। मैंने रुमाल निकालते हुए पूछा..
“कैसे..”
“बेचारी दिल की मरीज़ थी..”
वो माह दिसंबर का अंतिम सप्ताह था लेकिन वो मेरे दिल में एक कभी न ख़त्म होने वाली सर्द जनवरी पैदा कर गयी थी।