मैं बेचारी हिन्दी हूँ
बीत गये हैं बाट जोहते
अब तो वर्ष पिछत्तर भी
कब आऊँगी मैं अपने घर
सोचे द्वार खड़ी हिन्दी।
मेरे घर के लोग बात तो
सब करते हैं बड़ी बड़ी
पर घर की है बोलचाल सब
वही विदेशी अंगरेजी।
हाय न क्यों आती इनको सुधि
मातृ भाषा अपनी हिन्दी
हाँ बस करते एक वर्ष में
एक बार स्मृति मेरी।
भले विदेशों में मुझको
सर आँखों पर बैठाते हैं
मेरे लिए विश्व विद्यालय
भी विभाग खुलवाते हैं
बहुसंख्यक हैं हिन्दी भाषी
सब ही मान दिलाते हैं
फिर भी मेरे लाल अभी तक
अंग्रेजी अपनाते हैं
एक दिवस बस एक बरस में
हिन्दी दिवस मनाते हैं
हिन्दी के लेखकगण
भी सम्मान इसी दिन पाते हैं
शेष तीन सौ चौंसठ दिन
होता अंग्रेजी का व्यवहार
अंग्रेजी की रोटी खाते
अंग्रेजी का ही व्यापार
हाय हुई मैं अपने ही घर
कितनी बेचारी देखो
राजा परजा कोई न समझे
मेरी लाचारी देखो।
मुझको अपनाने वालों को
कहाँ उचित सम्मान मिले
बनूँ राष्ट्र भाषा तब ही तो
भारत को भी मान मिले
अरे सपूत समझो कुछ तो
अपनी भाषा का अभिमान
जिसकी अपनी भाषा न हो
कैसे मिले देश को मान?
कब तक रखोगे नेताओ
मुझे अपाहिज श्रेणी में
आखिर कब अवगाहन होगा
हिन्दी केरि त्रिवेणी में।
- आशा शैली, हल्द्वानी, उत्तराखंड
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मेरी कविता को स्थान देने के लिए आभार